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११० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
मूल द्वारा विनयवान् व्यक्ति इस लोक में कीर्ति और ज्ञान प्राप्त करता है और क्रमशः अपना आत्मविकास करता हुआ अन्त में निःश्रेयस को प्राप्त करता है ।"
उदय,
वृत्तिकार वसुनन्दि ने विनयकर्म की परिभाषा करते हुए कहा है कि जिसके द्वारा कर्म दूर किये जाते हैं, कर्मों का संक्रमण, उदीरणा आदि भावरूप परिणमन करा दिया जाता है उस क्रिया को विनयकर्म या शुश्रूषा कहते हैं 12
विनयकर्म के भेद :- - इसके पाँच भेद हैं- १. लोकानुवृत्ति, २ . अर्थनिमित्तक, ३. कामतंत्र, ४. भय और ५. मोक्ष । इनमें अर्थविनय कामविनय और भयविनय - ये तीन मूलरूप में संसार की प्रयोजक हैं ।
१. लोकानुवृत्ति विनय - अर्थात् लोकाचार में विनय करना । मूलरूप में लोकानुवृत्तिविनय की विधि के अनुसार दो भेद हैं - प्रथम के अन्तर्गत यथावसर सबका यथोचित आदर-सत्कार किया जाता है और दूसरी वह विनय जो अपने विभव के अनुसार देवपूजा आदि के समय की जाती है । इस प्रकार पूज्य पुरुषों के आगमन पर आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिथि पूजा, देवपूजा, अनुकूल भाषण तथा देश-काल योग्य स्वद्रव्य दान करना – ये सब लोकानुवृत्तिविनय है । इन्हीं आधारों पर इसके निम्न सात भेद किये जा सकते हैं - अभ्युत्थान, आसनदान, अतिथिपूजा, अपने विभव के अनुसार देवपूजन, भाषानुवृत्ति, छंदानुवर्तन और देश-काल योग्य स्वद्रव्य दान |
२. अर्थनिमित्तक विनय - अपने प्रयोजन अथवा स्वार्थवश हाय जोड़ना ।" ३. कामतंत्र विनय — काम पुरुषार्थ के लिए विनय करना ।
४. भय विनय- -भय के कारण विनय करना ।
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१. दशवैकालिक ९/२/२.
२. मूलाचारवृत्ति ७ ७९. ३. लोकाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्तं य कामतंते य ।
भयविणओ य चउत्थो पंचमओ मोक्खविणओ य ।। मूलाचार ७।८३.
४. अब्भुट्ठाणं अंजलिआसणदाणं च अतिहिपूजा य । लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविहवेण ॥ भासावित्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च । लोकावित्तिविणओ.''
५. अंजलिकरणं च अत्थकदे - वही ७।८५.
६-७. एमेव कामतंते भयविणओ चेव आणुपुन्वीए - वही ७१८६.
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—मूलाचार ७१८४-८५.
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