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________________ १०८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन १२. विभ्य-परमार्थ को जाने बिना गुरु आदि से भयभीत होकर वंदना करना। १३. ऋद्धिगौरव-वंदना करने से कोई चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ का भक्त हो जायेगा इस अभिप्राय से वंदना करना । १४. गौरव~आसनादि के द्वारा अपना माहात्म्य-गौरव प्रगट करके अथवा रसयुक्त भोजन आदि की स्पृहा रखकर वंदना करना । १५. स्तनित-आचार्यादि से छिपकर---इस ढंग से वंदना करना जिससे उन्हें मालूम ही न पड़े। १६. प्रतिनीत-देव, गुरु आदि के प्रतिकूल होकर वंदना करना। १७. प्रदुष्ट-दूसरे के साथ द्वेष, वर, कलह आदि करके उससे क्षमा मांगे या किये बिना वंदना आदि क्रिया करना । १८. तजित-दूसरों को भय दिखाकर अथवा आचार्यादि के द्वारा तर्जनी अंगुलि आदि से तजित अर्थात् अनुशासित किये जाने पर कि यदि नियमादि का पालन नहीं करोगे तो आपको (संघ से) निकाल दूंगा-ऐसा तजित किये जाने पर ही वंदना करना तजित दोष है । १९. शब्द-मौन छोड़कर शब्द बोलते हुए वंदना करना शब्द दोष है अथवा 'सह' के स्थान पर 'सट्ठ'—यह पाठ रहने पर शठतापूर्वक या माया प्रपंच से बंदना करना शाट्य दोष है । २०. हीलित-आचार्य या अन्य साधुओं का पराभव करके वंदना करना । २१. त्रिवलित-ललाट की तीन रेखाएं चढ़ाकर वंदना करना या वंदना करते समय कमर, हृदय और कण्ठ इन तीनों में भंगिमा पड़ जाना । २२. कुंचित-घुटनों के बीच में मस्तक झुकाकर वन्दना करना या दोनों हाथों से सिर का स्पर्शकर संकोच रूप होकर वन्दना करना । २३. दृष्टआचार्य के सामने ठीक से वन्दना करना, परोक्ष में स्वच्छन्दतापूर्वक अथवा इच्छानुकूल दशों दिशाओं में अवलोकन करते हुए वन्दना करना । २४. अदृष्टआचार्य आदि न देख सकें अतः ऐसे स्थान से वन्दना करना । अथवा भूमि, शरीर आदि का प्रतिलेखन किये बिना मन की चंचलता से युक्त होकर अथवा पीछे जाकर वन्दना करना । २५. संघ-कर-मोचन-संघ के रुष्ट होने के भय से तथा संघ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वंदना को 'कर' (टैक्स) भाग समझकर पूर्ति करना, २६. आलब्ध-उपकरणादि प्राप्त करके वंदना करना। २७. अनालब्ध-उपकरणादि को आशा से वंदना करना। २८. हीन-ग्रंथ, अर्थ, कालादि प्रमाण रहित वंदना करना । २९. उत्तर चूलिका-वंदना को थोड़े समय में पूर्ण करना तथा उसकी चूलिका सम्बन्धी आलोचना आदि को अधिक समय तक सम्पन्न करके वन्दना करना। ३०. मूक-मूक (गूंगे) व्यक्ति की तरह मुख के भीतर ही भीतर वंदना पाठ बोलना अथवा वंदना करते हुए हुँकार, अंगुलि आदि की संज्ञा (चेष्टा) करना । ३१. दर्दुर-अपने शब्दों के द्वारा दूसरों के शब्दों को दबाने के उद्देश्य से तेज गले के द्वारा महाकलकल युक्त शब्द करके वंदना करना। ३२. चुलुलित (चुरुलित)-एक ही स्थान में खड़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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