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मूलगुण : १०७
६-कृतिकर्म कितनी अवनतियों से करें ? : अवनति से तात्पर्य है भूमि पर बैठकर भूमि स्पर्श पूर्वक नमन ।' क्रोध, मान, माया, लोभ एवं परिग्रह इनसे रहित मन, वचन, और काय की शुद्धि पूर्वक कृतिकर्म में दो अवनति करना चाहिए ।२
७-कितने बार शिरोनति (मस्तक पर हाथ जोड़कर) कृतिकर्म करे ? अवनति की तरह मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक चार बार सिर से नमन (चतुः शिरोनति) करके कृतिकर्म करना चाहिए । अर्थात् सामायिक के प्रारम्भ
और अन्त में तथा थोस्सामि दण्डक के प्रारम्भ और अन्त में-इस तरह चार बार शिरोनति विधि की जाती है।
८-कृतिकर्म कितने आवर्ती से शुद्ध होता है ? : प्रशस्त योग को एक अवस्था से हटाकर दूसरी अवस्था में ले जाने का नाम परावर्तन या आवर्त है। मन, वचन और काय की अपेक्षा आवर्त के ये तीन भेद । इसके बारह भेद हैंसामायिक के प्रारम्भ में तीन और अन्त में तीन, चतुर्विशतिस्तव के प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन–कुल मिलाकर बारह आवतों से कृतिकर्म शुद्ध होता है । अतः जो मुमुक्षु साधु वंदना के लिए उद्यत हैं, उन्हें ये बारह आवर्त चाहिए।
९~-कितने दोष रहित कृतिकर्म करे ? : बत्तीस दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए। इन्हें ही वन्दना के बत्तीस दोष भी कहा जाता है, १. अनादृतनिरादर पूर्वक या अल्पभाव से समस्त क्रिया-कर्म करना । २. स्तब्ध-विद्या, जाति आदि आठ मदों के गर्व पूर्वक वन्दना करना। ३. प्रविष्ट-पंचपरमेष्ठी के अति सन्निकट होकर या असंतुष्टतापूर्वक वंदना करना । ४. परिपीडितदोनों हाथों से दोनों जंघाओं या घुटनों के स्पर्श-पूर्वक वंदना करना। ५. दोलायित-दोलायमानयुक्त होकर अर्थात समस्त शरीर हिलाते हुए वन्दना करना । ६. अंकुशित-हाथ के अंगूठे को अंकुश की तरह ललाट से लगाकर वन्दना करना । ७. कच्छप रिंगित-कछुए की तरह चेष्टापूर्वक (रंगकर) वंदना करना । ८. मत्स्योद्वर्त- मछली को तरह कमर को ऊँची करके वन्दना करना। ९. मनोदुष्ट-द्वेष अथवा संक्लेश मनयुक्त वंदना करना। १०. बेदिकाबद्ध-दोनों हाथों से दोनों घुटनों को बाँधकर वक्षस्थल के मर्दनपूर्वक वन्दना करना । ११. भय-मरण आदि सात भयों से डरकर वंदना करना ।
१. मूलाचार वृत्ति ७।१०४.
२. मूलाचार ७।१०४. ३. चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजदे-वही ७।१०४. ४. मूलाचार वृत्ति ७।१०४, अनगार धर्मामृत ८1८८-८९. ५. मूलाचार, वृत्ति सहित ७।१०६-११०.
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