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________________ १०६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ६-सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व से -देवसिक प्रतिक्रमण व रात्रियोग धारण सूर्यास्त तक ७.-सूर्यास्त से लेकर उसके दो -आचार्यदेव वन्दन तथा मनन घड़ी पश्चात तक ८-सूर्यास्त के दो घड़ी पश्चात् -पूर्वरात्रिक स्वाध्याय से अर्धरात्रि के दो घड़ी पूर्व तक ९-अर्धरात्रि के दो घड़ी पूर्व से -चार घड़ी निद्रा उसके दो घड़ी ५श्चात् तक १०-अर्धरात्रि के दो घड़ी पश्चात् -वैरात्रिक स्वाध्याय से सूर्योदय के दो घड़ी पूर्व तक ११-सूर्योदय के दो घड़ी पूर्व से -रात्रिक प्रतिक्रमण सूर्योदय तक षट्खण्डागम में कहा है कि कृतिकर्म तीनों सन्ध्या कालों में करना चाहिए। इसी की धवला टीका में आचार्य वीरसेन ने तो यहाँ तक कहा है कि कृतिकर्म तीन बार ही करना चाहिए ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं हैं। अधिक बार भी किया जा सकता है पर तीन बार अवश्य करना चाहिए ।' तीनों कालों में किये जाने वाले कृतिकर्म में सामायिक, चतुर्विशतिस्तव और वन्दन-इन तीनों आवश्यकों की मुख्यता होती है। तीनों सन्ध्याकालों में किया जाने वाला कृतिकर्म मुनि और श्रावक दोनों को एक समान है। अन्तर केवल इतना है कि साधु अपरिग्रही होने से कृतिकर्म करते समय अक्षत आदि द्रव्य का उपयोग नहीं करते जबकि गृहस्थ उनका उपयोग कर भी सकते हैं।' इस प्रकार कृतिकर्म श्रमणाचार और श्रावकाचार दोनों में मुख्य आचार के रूप में प्रतिपादित है । वैसे मुनि सांसारिक कार्यों से मुक्त होते हैं फिर भी उनका मन लौकिक यश, समृद्धि तथा अपनी प्रतिष्ठा की ओर भूलकर भी आकर्षित न हो और गमनागमन, आहार ग्रहण आदि प्रवृत्ति करते समय लगे हुए दोषों का परिमार्जन होता रहे, अतः मुनि कृतिकर्म को स्वीकार करता है । गृहस्थ की जीवनचर्या ही ऐसी होती है जिसके कारण उसकी प्रवृत्ति निरन्तर सदोष बनी रहती है अतः उसे भी कृतिकर्म करने का उपदेश दिया गया है ।। क्योंकि कृतिकर्म का मुख्य उद्देश्य आत्मशुद्धि है । १. षट्खण्डागम, कर्म अनुयोद्वार सूत्र २८, धवला टीका सहित । २. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, प्रास्ताविक पृष्ठ २१,२२ (द्वितीय संस्करण) ३. वही, पृष्ठ २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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