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________________ मूलगुण : १०५ सम्बोधनपूर्वक तथा प्रार्थनापूर्वक कृतिकर्म करना चाहिए। जो ध्यानादि में एकाग्रचित्त है, कृतिकर्म करने वाले की ओर पीठ किए बैठा है । प्रमत्त, निन्दित अवस्था अथवा विकथा आदि तथा आहार, नीहार आदि क्रियाओं में संलग्न है, ऐसे संयमी मुनि की भी वन्दना नहीं करना चाहिए ।२ इन सबके साथ अवसर विशेष का भी ध्यान रखना चाहिए । यथा आलो चना, सामायिकादि षडावश्यक, प्रश्न पूछने के पूर्व, पूजन, स्वाध्याय, क्रोधादि अपराध के समय आचार्य, उपाध्यायादि गुरूओं की वंदना करनी चाहिए । (५) कृतिकर्म कितने बार करे ? : पूर्वाह्न और अपराह्न दोनों कालों के सात-सात अर्थात् कुल चौदह कृतिकर्म करना चाहिए । सात कृतिकर्म ये हैं१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. वीर, ४. चतुर्विशति तीर्थकर-ये चार भक्ति प्रतिक्रमण काल के कृतिकर्म हैं, तथा ५. श्रुतभक्ति, ६. आचार्य भक्ति, ७. स्वाध्याय उपसंहार-ये तीन स्वाध्याय काल के कृतिकर्म हैं। अनगार धर्मामृत में यही विभाजन विशेष स्पष्टीकरण के साथ इस तरह हैसमय क्रिया १-सूर्योदय से लेकर दो घड़ी तक -देववंदन, आचार्यवंदन तथा नमन २-सूर्योदय के दो घड़ी पश्चात् से -पूर्वाह्निक स्वाध्याय मध्याह्न की दो घड़ी पहले तक ३-मध्याह्न के दो घड़ी पूर्व से -आहारचर्या (यदि उपवास युक्त है दो घड़ी पश्चात् तक तो कम से आचार्य, देव-वंदन व मनन) ४-आहार से लौटने पर -मंगलगोचर प्रत्याख्यान ५-मध्याह्न के दो घड़ी पश्चात् -अपराह्निक स्वाध्याय से सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व तक १. आसणे आसणत्थं च उवसंतं च उवट्ठिदं । __ अणुविण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदे ॥ मूलाचार ७१०१. २. वही ७।१००. ३. आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए । अवराधे य गुरूणं वंदणभेदेसु ठाणेसु ।। मूलाचार ७।१०२. ४. चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए । पुन्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होंति ॥ मूलाचार ७.१०३. ५. अनगार धर्मामृत ९.१-१३,३४-३५ उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० १३७. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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