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१०४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
(१) कृतिकर्म कौन करे ? (स्वामित्व)-पंचमहावतों के आचरण में लीन धर्म में उत्साहित, उद्यमी, मान-कषाय से रहित, निर्जरा का इच्छुक और दीक्षा में लघु ऐसा संयमी श्रमण कृतिकर्म करता है।'
(२) कृतिकर्म किसका करे ? :-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर आदि की वन्दना (कृतिकर्म) अपने कर्मों की निर्जरा के लिए करना चाहिए। किन्तु संयत मुनि को असंयत माता-पिता, गुरू, राजा, देश विरत श्रावक तथा पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अपसंज्ञ, मृगचरित्र और अन्य तीर्थ के साधुओं की वन्दना नहीं करना चाहिए । क्योंकि ये मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा धर्म-तीर्थ आदि में श्रद्धा और हर्ष रहित होते हैं । ऐसे साधु तो रत्नत्रय, तप और विनय से सर्वथा परे रहकर गुणधर (मूलगुण-उत्तरगुण के धारक) मुनियों के छिद्रान्वेषी होते हैं।
(३) कृतिकर्म किस विधि से करे ? : पर्यकासन तथा कायोत्सर्ग इन दो आसनों में से किसी एक आसन पूर्वक कृतिकर्म करना चाहिए। क्योंकि ये दो आसन सुखासन कहलाते हैं। इनमें भी पर्यंकासन अधिक सुखकर हैं, वाकी के सब आसन विषम अर्थात् व्याकुलता उत्पन्न करने वाले हैं। जो महाशक्तिशाली हैं उन्हें सभी आसनों का प्रयोग करके मन, वचन और काय की विशुद्धिपूर्वक मदरहित होकर क्रमों का उल्लंघन न करके कृतिकर्म करना
चाहिए।
कृतिकर्म के लिए योग्य स्थान भी अपेक्षित है अतः विनय की वृद्धि हेतु साधुओं को तृणमय, शिलामय या काष्ठमय आसन पर बैठना चाहिए जिसमें क्षुद्र जीव न हों, या उस आसन से चरचर की आवाज न आती हो, आसन को छिद्र, कोल या काँटे रहित, सुखकर तथा निश्चल होना चाहिए।'
(४) कृतिकर्म किस अवस्था में करे ? : जो आचार्य-मुनि पर्यकासन पूर्वक आसन पर बैठा हो, ध्यान आदि कार्य में उस समय उपयुक्त न हो, ऐसे शान्तचित्त मुनि को-हे प्रभो ? मैं वन्दना करता हूं-इस तरह से मेधावी मुनि को
१. मूलाचार ७।९३.
२. वही ७।९४. ३. वही ७।९५-९७, अनगार धर्मामृत ७४२, ४. दुविहठाण पुणरुक्तं-मूलाचार ७।१०५. ५. महापुराण २१७१-७२, कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३५५, अनगार धर्मामृत ८८४. ६. महापुराण २११७३.
७. मूलाचार ७४१०५. ८. अनगार धर्मामृत ८५८२।
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