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मूलगुण : १०३
विशुद्धिरूप मानसिक क्रिया और नमस्कार आदि रूप कायिक क्रिया करने से ज्ञानावरणादि अष्टविधकर्मों का कृत्यते छिद्यते' छेद होता है उसे कृतिकर्म कहा जाता है । यह पुण्यसंचय का कारण है, अतः इसे चितिकर्म भी कहते हैं । इसमें चतुर्विंशति तीर्थंकरों और पञ्चपरमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) आदि की पूजा की जाती है, अतः इसे पूजाकर्म भी कहते हैं। इसके द्वारा उत्कृष्ट विनय प्रकाशित होती है अतः इसे विनय कर्म भी कहते हैं । इनमें कृतिकर्म और विनयकर्म इन दो का क्रमशः विशेष विवेचन प्रस्तुत है
कृतिकर्म-कृतिकर्म पापों के विनाश का उपाय है ।' सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशतिस्तव पर्यन्त की जाने वाली विधि को कृतिकर्म कहते हैं। ग्रन्थकार ने कृतिकर्म को क्रियाकर्म भी कहा हैं । जिनदेव, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय की वन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते है। आचार्य वसुनन्दि ने कहा है-सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुविंशति तीर्थकर स्तव पर्यन्त जो विधि है उसे कृतिकर्म कहते हैं । मूलाचारकार ने कृतिकर्म-प्रयोग की विधि बतलाते हुए कहा है कि-यथाजात (नग्न) मुद्राधारी साधु मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक दो प्रणाम, बारहआवर्त और चार शिरोनति सहित कृतिकर्म करे।
मूलाचारकार ने कृतिकर्म के नौ अधिकार बताये हैं अर्थात् कृतिकर्म का नौ द्वारों से विचार किया है । (१) कृतिकर्म कौन करे ? (२) किसका करे ? (३) किस विधि से करे ? (४) किस अवस्था में करे ? (५) कितनी बार करे ? (६) कितनी अवनतियों से करे अर्थात् कृतिकर्म करते समय कितने बार झुकना चाहिए ? (७) कितने बार मस्तक पर हाथ रखकर करे ? । (८) कितने आवतों से शुद्ध होता है ? (९) वह कृतिकर्म कितने दोष रहित करे ?-इन नौ अधिकार रूप नौ प्रश्नों का समाधान इस तरह है।
१. कृतिकर्म पापविनाशनोपायः । मूलाचार वृत्ति ७।७९. २. जिण-सिद्धाइरिय-बहुसुदेसु वंदिज्जमाणेसु जं कीरइ कम्मं तं किदिकम्मं णाम ।
-जयधवला १।११९१, पृ० १०७. ३. सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतु विंशतितीर्थकरस्तवपर्यन्तः कृतिकर्मेत्युच्यते
-मूलाचारवृत्ति ७।१०३. ४. दोणदं तु जधाजादं वारसावत्तमेव य ।
चदुस्सिरं तिसुद्धच कि दियम्मं पउंजदे ।। मूलाचार ७।१०४. ५. कदि ओणदं कदि सिरं कदि आवत्तगेहिं परिसुद्धं ।
कदिदोसविप्पमुक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं ॥ मूलाचार ७८०.
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