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________________ मूलगुण : १०१ है।' जयधवला के अनुसार एक तीर्थकर को नमस्कार करना वन्दना है२ धवला में भी कहा है ऋषभादि तीर्थकर, केवली, आचार्य तथा चैत्यालय-इनके गुणसमूहों के भेदपूर्वक शब्द-कलाप रूप गुणानुवादयुक्त नमस्कार वंदना है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है वन्दना से जीव नीचगोत्र का क्षय तथा उच्च गोत्र का बन्ध करता है। वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त करता है। सर्वत्र आज्ञाफल तथा दाक्षिण्य अनुकूलता मिलती है। अर्थात् जिसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्य करें वैसा अबाधित सौभाग्य और जनता की अनुकूल भावना को प्राप्त होता है । मूलाचारकार के अनुसार चारित्रादि अनुष्ठान, ध्यान, अध्ययन में तत्पर क्षमादि गुण तथा महाव्रतधारी, असंयम से ग्लानि करने वाले और धैर्यवान् श्रमण वन्दना के योग्य होते हैं । ऐसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ मुनि, आचार्या दि वन्दनीय होते हैं । अनादृत, स्तब्ध आदि बत्तीस दोषों से रहित वन्दना हो शुद्ध वन्दना है तथा यही विपुल निर्जरा का कारण भी है । वंदना को विधि यह है कि-सर्वप्रथम जिस आचादि ज्येष्ठ श्रमणों की वन्दना की जाती है तो उनमें तथा वन्दनकर्ता के मध्य एक हाथ अन्तराल रखकर फिर अपने शरीरादि के स्पर्श से देव का स्पर्श या गुरू को बाधा न करते हुए अपने कटि आदि अंगों का पिच्छिका से प्रतिलेखन करे तब वन्दना की इस प्रकार याचना (विज्ञापना) करे कि "मैं वन्दना करता हूँ"। उनकी स्वीकृति लेकर इच्छाकार पूर्वक वन्दना करना चाहिए । __ अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दना करने वाले को न तो कर्म की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही बल्कि असंयम आदि दोषों के समर्थन द्वारा कर्मबन्ध ही होता है। इतना ही नहीं अपितु गुणो पुरुषों के द्वारा अवन्दनीय अपनी वन्दना कराने रूप असंयम की वृद्धि द्वारा अवंदनीय की आत्मा का अधःपतन होता है। १. अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरुगुरुणरादीणं । किदियम्मेणिदरेण य तियरण संकोचणं पणमो । मूलाचार ११२५. २. एयरस तित्ययरस्स णमंसणं वंदणा णाम -कसाय पाहुड जयधवला ८६, १।१-१८६, पृ० १११. ३. धवला ८।३।४।८४।३. ४. उत्तराध्ययन २९।११. ५. मूलाचार ७।९८. ६. हत्थंतरेण बाधे संफासमप्पज्जणं पउज्जंतो। जाएंतो वेदणयं इच्छाकारं कुणदि भिक्खू ।। मूलाचार, सवृत्ति ७।११२. ७. आवश्यक नियुक्ति ११०८. ८. आवश्यक नियुक्ति १११०. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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