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१०० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
१. नाम : चौबीस तीर्थंकरों के गुणों के अनुसार उनके १००८ नामों का उच्चारण करना नामस्तव है ।
२. स्थापना : तीर्थंकरों के गुणों की धारक तद्रूप स्थापित जिन प्रतिमाओं की स्तुति करना स्थापना स्तव है ।
३. द्रव्य : परमौदारिक शरीर के धारक तीर्थंकरों का वर्ण, उनके शरीर की ऊँचाई, उनके माता-पिता आदि का वर्णन द्रव्यस्तव है ।
४. क्षेत्र : तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, कल्याणकों द्वारा पवित्र नगर, वन, पर्वत आदि स्तव है ।
ज्ञान और निर्वाण इन पांच क्षेत्रों का वर्णन करना क्षेत्र
५. काल : गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और मोक्ष—इन पाँच समयों के कल्याणकों की स्तुति करना कालस्तव है ।
६. भाव : तीर्थंकरों के अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अव्याबाध और विरागता आदि गुणों का वर्णन एवं स्तवन करना भावस्तव है । स्तव की विधि : शरीर, भूमि और चित्त की शुद्धिपूर्वक दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद खड़े होकर अंजुली जोड़कर सौम्यभाव से स्तवन करना चाहिए ।" तथा यह चिन्तन करना चाहिए कि अर्हत् परमेष्ठी जगत् को प्रकाशित करने वाले, उत्तम क्षमादि घर्मतीर्थ के कर्ता होने से तीर्थंकर, जिनवर, कीर्तनीय और केवली जैसे विशेषणों से विशिष्ट उत्तमबोधि देने वाले हैं।
३. वंदना :
वन्दना नामक तृतीय आवश्यक मन, वचन और काय की वह प्रशस्त वृत्ति है जिससे साधक तीथ करादि के प्रति तथा शिक्षा, दीक्षा एवं तप आदि में ज्येष्ठ आचार्यों एवं गुरुओं के प्रति श्रद्धा और बहुमान प्रगट करता है । मूलाचार में कहा है— अरहंत, सिद्ध की प्रतिमा, तप, श्रुत तथा गुणों में ज्येष्ठ शिक्षा तथा दीक्षागुरुओं को मन, वचन, और काय की शुद्धि से कृतिकर्म, सिद्ध-भक्ति, श्रुत भक्ति और गुरु भक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि से विनय करना वन्दना (वंदण ) आवश्यक
१. चउरंगुलंतरपादो पडिलेहिय अंजली कयपसत्थो ।
अन्वाखितो वत्तो कुर्णादि य चउवीसत्ययं भिक्खू || मूलाचार ७ ७६. २. लोगुज्जोययरे धम्म तित्थयरे जिणवरे य अरहंते ।
कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसंतु ।। वही ७।४२.
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