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मूलगुण : ९९ शिष्य स्पष्ट रूप से योग्य-अयोग्य को नहीं जानते थे। इसीलिए आदि और अन्त के तीर्थंकरों ने अपने तीर्थ में छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है।' २. स्तव (चतुविशति-स्तव) :
ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों के नाम निरुक्ति के अनुसार अर्थ करके उनके असाधारण गुणों का कीर्तन-अर्थात् गुणग्रहण पूर्वक नाम लेकर तथा पूजनकर, मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक नमन करना द्वितीय चतुर्विंशतिस्तव (थवो) आवश्यक है ।२ जिनवरों की भक्ति से जीव पूर्व संचित कर्मों का क्षय और सम्यक्त्व की विशुद्धि कर लेता है । अर्हत्परमेष्ठी वंदनानमस्कार, पूजा-सत्कार तथा सिद्धिगमन के योग्य पात्र होने से उन्हें अर्हन्त कहते हैं। इस तरह लोक को ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित करने वाले चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन करना चतुर्विशतिस्तव है।"
स्तव के भेद-मूलाचार के अनुसार निक्षेप दृष्टि से स्तव के छह भेद हैं ।। जयघवला में इसके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार भेद किये गये हैं।" अपराजितसूरि ने मन, वचन, और काय इन तीन योगों के सम्बन्ध से स्तव के तीन भेद किये हैं।' १. मन से चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करना मनस्तव है । २. वचन से लोगुज्जोययरे'-इत्यादि गाथा में कही गयी तीर्थकरों की स्तुति बोलना वचनकृत स्तव है। ३. ललाट पर हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार करना कायकृतस्तव है।
निक्षेप दृष्टि से स्तव के छह भेद-°
१. उसहादि जिणवराणं णामणिरुत्ति गुणाणुकित्ति च ।
काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धिपरिणामो थवो णेओ ॥-मूलाचार १।२४ २. भत्तीइ जिणवराणं खिज्जति पुन्वसंचिया कम्मा ।
-वही ७।७२, आवश्यक नियुक्ति ११०४. ३. चउव्वीसत्थएणं दसणविसोहिं जणयइ
-उत्तराध्ययन ३११९, चतुःशरण सूत्र ३. ४. मूलाचार ७।६५. ५. आवश्यक सूत्र २.१. ६. मूलाचार ७१४१. ७. कसाय पाहुड जयधवला-११८५ पृ० ११९. ८. भगवती आराधना विजयोदया टीका ५०९. पृष्ठ ७२८. ९. मूलाचार ७१४२. १०. मूलाचार सवृत्ति ७.४१.
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