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________________ मूलगुण : ९७ करता है। मैंने दिन भर में यदि व्रतों में अतिचार लगाया हो, सूत्र अथवा मार्ग के विरुद्ध आचरण किया हो, दुर्ध्यान किया हो, श्रमणधर्म की विराधना की हो तो वह सब मिथ्या हो। जब तक मैं अर्हन्त भगवान् के नमस्कार मन्त्र का उच्चारण कर कायोत्सर्ग न करूँ, तब तक मैं अपनी काया को एक स्थान पर रखंगा, मौन रहूँगा, ध्यान में स्थित रहूँगा ।'' इस प्रकार सावद्ययोग के वर्जन हेतु सामायिक प्रशस्त उपाय एवं आध्यात्मिक प्रक्रिया है ।२ मूलाचारकार ने लिखा है एकाग्न मन से सामायिक करने वाला श्रावक भी श्रमण सदृश होता है, अतः श्रमणों को और भी स्थिरतापूर्वक अतिशय सामायिक करना चाहिए । हिंसा आदि दोषयुक्त गृहस्थधर्म को जघन्य अर्थात् संसार का कारण समझकर बुद्धिमान् को आत्महितकारी इस प्रशस्त उपायरूप सामायिक का पालन करना चाहिए। एक कथानक द्वारा ग्रन्थकार ने सामायिक की महत्ता इस प्रकार बताई है किसी वन में सामायिक करते हुए एक श्रावक के पास वाण से विद्ध (आहत) हिरण आया तथा थोड़ी ही देर बाद वह वहीं मर गया, किन्तु वह श्रावक भी संसारदोष दर्शन के वावजूद सामायिक संयम से विचलित नहीं हुआ । इस कारण श्रावक की अपेक्षा मुनि को और भी तत्परता से सामायिक करना चाहिए।" उपर्युक्त उल्लेखों से यह भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में श्रावकों को सामायिक मुनियों की तरह आवश्यक कर्म के रूप में नित्य प्रति करने का विधान रहा है । यह मात्र श्रमणों को आवश्यक क्रिया नहीं थी। विभिन्न तीर्थंकरों के तीर्थ में सामायिक तथा छेदोपस्थापना चारित्र (संयम) : चारित्र के पांच भेद हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात। इनमें से प्रारम्भ के दो भेदों को लेकर विभिन्न तीर्थंकरों के तीर्थ में सामान्य भेद है। वस्तुतः अभेद रूप से सम्पूर्ण सावद्य योग १. आवश्यक सूत्र प्रथम सामायिक अध्ययन तथा जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग २ पृ० १७४. २. सावज्जजोग परिवज्जणटुं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं-मूलाचार ७।३३. ३. सामाइयम्हि दु कदे समणो किर सावओ हवदि जम्हा।। एदेण कारणेणं दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ।। मूलाचार ७।३४. ४. गिहत्थवम्मोऽपरमत्ति णच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्थं -मूलाचार ७।३३. ५. सामाइए कदे सावएण विद्धो गओ अरणसि । सो य मओ उद्धादो ण य सो सामाइयं फिडिओ ॥ मूलाचार ७१३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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