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________________ मूलगुण : ९५ ३. प्रायोपगमन मरण-जिसमें अपने तथा दूसरों के द्वारा भी उपचार न हो अर्थात् अपनी टहल न तो आप करे न दूसरों से करावे, ऐसे सन्यासमरण को प्रायोपगमनमरण कहते हैं ।। ___ ज्ञायक शरीर के द्वितीय भेद भविष्यतज्ञायक शरीर का अर्थ है सामायिक शास्त्र का ज्ञाता जिस शरीर को आगामी काल में धारण करेगा तथा वर्तमान ज्ञायक शरीर से तात्पर्य जिस शरीर को वह धारण किये हुए हो । नोआगम द्रव्यसामायिक के ही अन्तर्गत जो सामायिक शास्त्र का जानने वाला आगे होगा वह द्वितीय भेद भावी नोआगम द्रव्यसामायिक है। तथा नोआगम द्रव्यसामायिक का तृतीय भेद 'तव्यतिरिक्त' के भी दो भेद हैं--कर्म और नोकर्म । इनमें ज्ञानावरणादि मूलप्रकृति रूप अथवा मतिज्ञानावरणादि उत्तरप्रकृति स्वरूप परिण मता हुआ कार्माण वर्गणा रूप पुद्गलद्रव्य कर्मतद्व्यतिरेक नोआगम द्रव्यसामायिक है। तथा कर्म-स्वरूप द्रव्य से भिन्न जो पुद्गल द्रव्य (शरीरादि) है, वह नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यसामायिक है । इसके भी तीन भेद हैं १. सचित्त (उपाध्यायादि), २. अचित्त (पुस्तकादि) और ३. मिश्र-(उभयरूप) ।। . द्रव्य सामायिक के उपर्युक्त भेद-प्रभेदों को निम्नलिखित चार्ट द्वारा समझा जा सकता है द्रव्य सामायिक आगम द्रव्यसामायिक नोआगम द्रव्यसामायिक ___ शायक शरीर ज्ञायक शरीर भावी. तव्यतिरिक्त भावी तद्व्यतिरिक्त च्यावित त्यक्त सचित्त चित्त भक्तप्रत्याख्यान इंगिनीमरण प्रायोपगमनमरण उत्तम मध्यम जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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