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________________ ९४ · मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन मेरे विषय में शुभाशुभ शब्दों का प्रयोग करता है तो उसमें रति-अरति करने का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि शब्द मेरा स्वरूप नहीं है । ' (२) स्थापना सामायिक - शुभ-अशुभ आकारयुक्त प्रमाण - अप्रमाण युक्त अवयवों से पूर्ण - अपूर्ण, तदाकार - अतदाकार स्थापित मूर्तियों में राग-द्व ेष न करना स्थापना सामायिक है । २ (३) द्रव्य सामायिक - सोना, चांदी, मोती, माणिक, मिट्टी, लकड़ी, लोहा, कांटे, पत्थर तथा अन्यान्य सचित्त और अचित्त द्रव्यों के प्रति समदृष्टि होना अर्थात् राग-द्व ेष न करना द्रव्य सामायिक है । आचार्य वसुनन्दि ने द्रव्य सामायिक के निम्नलिखित भेदों का उल्लेख किया है । ४ प्रथमतः द्रव्य सामायिक के दो भेद हैं- १. आगम द्रव्य सामायिक - जैसे कोई व्यक्ति सामायिक का स्वरूप कहने वाले शास्त्र का जानने वाला हो किंतु वह वर्तमान काल में उस शास्त्र में उपयोग नहीं रख रहा हो वह आगमद्रव्य सामायिक है । २. नोआगम द्रव्यसामायिक - इसके तीन भेद हैं ज्ञायकशरीर, भावी और तद् व्यतिरिक्त । इनमें सामायिक के स्वरूप को जानने वाले के शरीर को ज्ञायकशरीर कहते हैं । इसके भूत, भविष्य और वर्तमान ये तीन भेद हैं । इनमें प्रथम भूतज्ञायक शरीर च्युत, च्यावित और त्यक्त रूप में तीन प्रकार का है। अर्थात् १—च्युत भूतज्ञायक शरीर से तात्पर्य जो सामायिकशास्त्र के ज्ञाता का भूत शरीर दूसरे किसी कारण के बिना केवल आयु के पूर्ण होने पर नष्ट हुआ हो । जैसे पके हुए फल का गिरना । २ -च्यावित - जिस ज्ञायक का भूत शरीर कदलीघात की तरह किसी बाह्य निमित्त से नष्ट हो गया हो किन्तु सन्यास विधि से रहित हो उसे च्यावित कहते हैं । ३. त्यक्त शरीर से तात्पर्य जिस शरीर को कदलीचात सहित अथवा कदलीघात के बिना सन्यासरूप परिणामों से छोड़ दिया हो । त्यक्त शरीर के भी भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी, और प्रायोग्य ( प्रायोपगमन ) ये तीन भेद हैं । १. भक्त प्रत्याख्यान का अर्थ है मरण पूर्वक शरीर का छोड़ा जाना । समय बारह वर्ष, जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा प्रत्याख्यान का समय है । २. इंगिनीमरण का अर्थ है करे किसी दूसरे से रोगादिक का धारण करके मरण को प्राप्त हो । १. अनगार धर्मामृत ८ २१. Jain Education International भोजन न लेने की प्रतिज्ञा लेकर सन्यास - इसमें भी उत्तम भक्तप्रत्याख्यान का दोनों के मध्य का काल मध्यम-भक्त अपने शरीर की टहल आप ही अपने अंगों से उपचार न करावे -- इस विधान से जो सन्यास २. ४. मूलाचार वृत्ति ७।१७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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