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________________ ९२: मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन अर्थात् जिसकी आत्मा संयम, नियम, तथा तप में सन्निहित है वही आत्मा सामायिक में स्थित रहता है। (३) क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों को जो जीत लेता है वह सामायिक में स्थित होता है । (४) रसना और स्पर्शइन दो कर्मेन्द्रियों के विषय, क्रमशः कटु, तिक्त आदि पाँच रसों और मृदु, कठोर आदि आठ स्पर्शों तथा नेत्र, घ्राण एवं कर्ण-इन भोगेन्द्रियों के विषय क्रमशः रूप, गन्ध और शब्द इन सबका सर्वथा त्याग करना सामायिक है । (५) आहारादि चार संज्ञायें तथा कृष्ण, नील, कापोत, पीत और पद्म--ये पाँच लेश्यायें जिसमें विकार उत्पन्न नहीं करतीं उसे सामायिक होता है। (६) जो आर्त और रौद्र ध्यान से विरत तथा धर्म एवं शुक्ल ध्यान में लीन रहता है वह सदा सामायिक में स्थित होता है । (७) सर्व सावधों (पापों) से रहित मन-वचन और काय रूप तीन गुप्तियों का पालन तथा पंचेन्द्रिय विषयों को जीतने वाला जीव सामायिक संयम या इन दोनों का अभेद रूप उत्तम-स्थान प्राप्त करता है। राग-द्वेष का निरोध करके सर्व कार्यों में समता भाव रखने वाला, द्वादशांग एवं चतुर्दश पूर्व रूप सूत्रों में श्रद्धायुक्त आत्मा को उत्तम सामायिक होता है । क्योंकि सादृश्य अथवा स्वरूप से द्रव्य, गुण और पर्याय-- इनकी सत्ता तथा इन्हें स्वतःसिद्ध जानना उत्तम सामायिक है । आत्मोत्कर्ष जैसे उत्तम उद्देश्य की प्राप्ति हेतु समभाव की अत्यन्त आवश्यकता होती है। क्योंकि समभाव का अभ्यास किये बिना ध्यान नहीं होता, ध्यान के बिना निश्चल समत्व की प्राप्ति नहीं होती, अतः समभाव और ध्यान का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं और घटक भी। जिस प्रकार चन्दन अपने काटनेवाले कुल्हाड़े को भी सुगन्धित कर देता हैं, उसी तरह विरोधी के प्रति भी समभाव की सुगन्ध अर्पित करने वाले महात्माओं को तो सामायिक मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट अंग है ।° कहा है त्रस व १. मूलाचार ७।२४. तथा आवश्यक नियुक्ति गाथा ७९८. २. मूलाचार ७।२७. ३. वही ७।२९, ३०. ४. वही ७।२८. ५. वही ७।३१-३२. ६. वही ७।२३. ७. वही ७।२२. ८. जो जाणइ समवायं दव्वाणं गुणाण पज्जयाणं च । सब्भावं तं सिद्धं सामाइयमुत्तमं जाणे ॥ मूलाचार ७।२१. ९. न साम्येन बिना ध्यानं न ध्यानेन बिना च तत् । निष्कम्प जायते तस्माद् द्वयमन्योन्यकारणम् ।। -योगशास्त्र (आ० हेमचन्द्र कृत) ४.११४. १०. अष्टक प्रकरण (आ० हरिभद्र) २९।१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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