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मूलगुण : ९१ अवाधित मध्यस्थ आत्मा में 'आय' उपयोग की प्रवृत्ति समाय है। वह प्रयोजन जिसका है वह सामायिक है। इसी प्रकार अनगारधर्मामृत में भी कहा हैसमाये भवः सामायिकम्-अर्थात् सम-रागद्वेष-जनित इष्ट-अनिष्ट की कल्पना से रहित जो 'आय' अर्थात् ज्ञान है वह समाय है उस समाय में होनेवाला भाव सामायिक है । ये सामायिक शब्द के निरुक्तार्थ हैं तथा समता में परिणत होना वाच्यार्थ है । मूलाचारकार के अनुसार सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप-~-इनके द्वारा प्रशस्त रूप से आत्मा के साथ समगमन अर्थात् ऐक्य का नाम समय है । इसी समय को सामायिक कहते हैं । अर्थात् इन क्रियाओं से परिणत आत्मा ही सामायिक है।
- इस प्रकार जब साधक सावद्ययोग से विरत होकर षट्काय के जीवों के प्रति संयत होता है, मन-वचन-काय को एकाग्र करता है, स्व-स्वरूप में उपयुक्त है, यतना में विचरण करता है उस आत्मा का नाम सामायिक है। उत्तराध्ययन के एक प्रश्नोत्तर में कहा है-जीव को सामायिक से क्या प्राप्त होता है ? इसके उत्तर में कहा है-सामायिक से जीव सावध योगों (असत् प्रवृत्तियों) से विरति को प्राप्त होता है ।
मूलाचारकार ने सामायिक के स्वरूप की सार्वभौमिकता को ध्यान में रखते हुए इसकी व्याख्यायें इस प्रकार प्रस्तुत की है (१)-जो स्व तथा अन्य आत्माओं में सम है, सम्पूर्ण स्त्रियों में जिसकी मातृवत् दृष्टि है, प्रिय-अप्रिय मान आदि में भी सम है उस श्रमण को सामायिक अवस्था प्राप्त होती है । (२) उपसर्ग और परीषह को जीतने वाला, समिति और पच्चीस भावनाओं में उपयुक्त, नियम के पालन में उद्यतबुद्धि वाला जीव (आत्मा) सामायिक में परिणत होता है।"
१. तत्र समं एकत्वेन आत्मनि आयः आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य
आत्मनि प्रवृत्तिः समायः । अथवा सं समे रागद्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे आत्मनि आयः उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः स प्रयोजनमस्येति सामायिकम्
-गोम्मटसार जीवकाण्ड जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा ३६८. २. अनगारधर्मामृत टीका-१८।१९. ३. सम्मत्तणाणसंजमतवेहिं जं तं प्रसत्थसमगमणं ।
समयंतु तं तु भणिदं तमेय सामाइयं जाणं ॥ मूलाचार ७।१८. ४. आवश्यक नियुक्ति १४९. ५. उत्तराध्ययन २९।८. ६. मूलाचार ७।२०, २६.
७. वही ७।१९. .
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