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मूलगुण : ८९ राग-द्वेषादि से रहित तथा इन्द्रियों की आधीनता से रहित होता है । तथा इन गुणों से युक्त अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकरणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं | मूलाचारकार ने कहा है--जो राग-द्वेषादि के वश नहीं होता वह अवश है तथा उस (अवश ) का आचरण या कर्त्तव्य आवश्यक कहलाता है । " जिसे श्रमणादिक को दोनों समय अवश्य करना चाहिए ।" कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार जो अन्य के वश नहीं है वह अवश, उस अवश का कार्य आवश्यक है । जो कर्मों का विनाशक, योग एवं निर्वाण का मार्ग है । ३
वे क्रियायें आवश्यक हैं जो आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराती हैं* अथवा जिस क्रिया या विधि को श्रमण और श्रावक अहर्निश अवश्यकरणीय समझते हैं, वह आवश्यक है ।" विशेषावश्यकभाष्य में कहा है- अवश्य करने योग्य वह क्रिया जो आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों के अधीन करे तथा आत्मा को ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रादि गुणों से आवासित, अनुरंजित अथवा आच्छादित करे वह आवश्यक है । इसी ग्रन्थ में आवश्यक के इन दस नामों का उल्लेख है - आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुव, निग्रह, विशुद्धि, षडध्ययन, वर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग । ७
भेद :
जैनाचार में श्रमण और श्रावक दोनों के लिए ही अवश्यकरणीय छह क्रियायें बतलायी हैं। मूलाचार तथा आचार विषयक अन्यान्य सभी जैन ग्रन्थों में
१. ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा - मूलाचार ७११४. २. अवश्यं कर्त्तव्यं आवश्यकं, श्रमणादिभिरवश्यं उभयकालं क्रियते ।
मलयगिरिकृत आवश्यक टीका पृ० ८६. ३. जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणति आवासं ।
कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति णिज्जुत्तो || नियमसार १४१.
४. आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः - भगवती आराधना वि०टी० ११६.
५. समणेण सावएण या अवस्सकायव्वयं हवति जम्हा ।
अंत अहो -निसिस्स उ तम्हा आवस्सयं नाम || अनुयोगद्वार सूत्र २९, गाथा ३, विशेषावश्यक भाष्य ८७६.
६. विशेषावश्यक भाष्य गाथा ८७० टीका सहित ।
७. आवस्सयं अवस्सं करणिज्जं धुवनिग्गहो विसोही य ।
अज्झयण छक्कवग्गो नाओ आराहणा मग्गो || विशेषावश्यक भाष्य ८७२. ८. मूलाचार ७१३३ - ३५, अमितगति श्रावकाचार ८।२९.
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