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८८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
५. स्पर्शनेन्द्रिय निरोध : चेतन-अचेतन पदार्थों से उत्पन्न कठोर, मृदु, स्निग्ध, रूक्ष, हलके, भारी, शीतल, उष्ण-इत्यादि के सुख-दुःख रूप स्पर्श का निरोध करना स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह है।' स्पर्श की आसक्ति में उलझा जीव विविध चराचर-त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है अतः स्पर्श से विरक्त मनुष्य संसार में रहता हुआ भी जलाशय में कमल के पत्ते के सदृश लिप्त नहीं होता।
इस तरह जैसे कछुवा संकट की स्थिति में अपने अंगों का समाहरण कर लेता है, वैसे ही श्रमण को भी संयम द्वारा इन्द्रिय विषयों की प्रवृत्ति का संयमन कर लेना चाहिए । वस्तुतः इन्द्रिय निरोध का यह अर्थ नहीं है कि इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों की ग्रहण-शक्ति समाप्त कर दें या रोक दें अपितु मन में इन्द्रिय विषयों के प्रति उत्पन्न राग-द्वष युक्त भाव का नियमन करना इन्द्रिय निरोध है। अर्थात् इन्द्रियों के शब्दादि जितने विषय हैं सभी में अनासक्त रहना अथवा मन में उन विषयों के प्रति मनोज्ञता-अमनोज्ञता उत्पन्न न करना । मूलाचारकार ने इन्द्रियों की निन्दा करते हुए कहा है-उन इन्द्रियों को धिक्कार हो जिनके वश होकर जीव पापों का संग्रह करता है और चतुर्गतियों में उनका फल भोगता हुआ अनन्त दुखों को प्राप्त करता है। यह निन्दा इन इन्द्रियों की स्वछन्द प्रवृत्ति के आधार पर की गई है। वस्तुतः विषयों के प्रति अनासक्ति और तटस्थता ही इन्द्रिय निरोध है । जिनकी इन्द्रियों की प्रवृत्ति सांसारिक क्षणिक विषयों की ओर है, वह आत्मतत्व रूप अमृत कभी प्राप्त नहीं कर सकता। जो सारी इन्द्रियों की शक्ति को आत्मतत्त्व रूप अमृत के दर्शन में लगा देता है वह सच्चे अर्थों में अमृतमय तथा इन्द्रियजयी बन जाता है । आवश्यकः
नित्य के अवश्यकरणीय क्रियानुष्ठान रूप कर्तव्यों को आवस्सय या आवश्यक कहते हैं । सामान्यतः ‘अवश' का अर्थ अकाम, अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतन्त्र,
१. जीवाजीवसमुत्थे कक्कसमउगादिअट्ठभेदजुदे ।
फासे सुहे य असुहे फासणिरोहो असंमोहो ।। मूलाचार ११२१. २. उत्तराध्ययन ३२७९,८६. ३. सूत्रकृतांग १।८।१।१६, संयुक्त निकाय १।२।७. ४. धित्तोसिमिदियाणं जेसि वसदो दु पावमज्जणिय ।
पावदि पावविवागं दुक्खमणंतं भवगदिसु ॥ मूलाचार ८।४३. ५. पाइअसद्दमहण्णवो पृष्ठ ८३.
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