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________________ ८६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन __इन्द्रिय निरोध या निग्रह :-स्वच्छन्द प्रवृत्ति का अवरोध निग्रह या निरोध है। ये इन्द्रियां अपनी विषय प्रवृत्ति द्वारा आत्मा को राग-द्वष युक्त करती हैं । इनको अपने-अपने विषयों की प्रवृत्ति से रोकना इन्द्रिय निग्रह है। जैसे उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों का लगाम के द्वारा निग्रह किया जाता है वैसे ही तत्वज्ञान की भावना (तप, ज्ञान और विनय) के द्वारा इन्द्रिय रूपी अश्वों का विषयरूपी उन्मार्ग से निग्रह किया जाता है । मूलाचारकार ने कहा है-इन्द्रियरूपी ये घोड़े स्वभावतः राग-द्वेष से प्रेरित होकर (धर्मध्यान रूप) रथ को उन्मार्ग की ओर ले जाते हैं, अतः मन रूपी लगाम से उसे दृढ़ करना चाहिए। क्योंकि राग, द्वेष और मोह को धीर पुरुषों ने वृत्ति (रत्नत्रय की दृढ़ भावना) के द्वारा सम्यकप से जीता तथा पंचेन्द्रियों को व्रत और उपवासों के प्रहारों से वश में किया है। इन्द्रियों को वश में करनेवाले वे महर्षि राग और द्वेष का क्षय करके निर्मल ध्यानरूप शुद्धोपयोग में युक्त होते हैं और मोह का विनाश करके सम्पूर्ण कर्मों का नाश करते हैं। __ मनुस्मृति में भी कहा है-"विद्वान् को चाहिए कि आकर्षण करने वाले विषयों में विचरण करने वाली इन्द्रियों को संयत रखने का यत्न करे, जिस प्रकार सारथी घोड़ों को संयत करने में यत्न करता है । __ जो श्रमण जल से भिन्न कमल के सदृश इन्द्रिय-विषयों की प्रवृत्ति में लिप्त नहीं होता वह संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है । १. चक्षु इन्द्रिय निरोधः-चेतन-अचेतन पदार्थों के व्यवहार, संस्थान (आकृति) और वर्ण में राग-द्वष तथा अभिलाषा का अभाव चक्षुरिन्द्रिय निरोध है। चक्षु रूप का ग्रहण करता है । वह रूप यदि सुन्दर है तो राग का हेतु है १. स्वेच्छा प्रवृत्तिः निर्वर्तनं निग्रहः-सर्वार्थसिद्धि ९।४. २. सगसगविसएहितो णिरोहियव्वा सपा मुणिणो । मूलाचार १११६. ३. भगवती आराधना १८३७. ४. मूलाचार, ९।११३-११५. ५. इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु । संयमे यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम् ॥ मनुस्मृति २१८८. ६. उत्तराध्ययन ३२।९९. ७. सच्चित्ताचित्ताणं किरियासंठाणवण्णभेएसु । रागादिसंगहरणं चक्खुणिरोहो हवे मुणिणो । मूलाचार १।१७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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