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________________ ८४: मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन द्वारा नियत निर्जन्तुक-भूमि प्रदेश को पिच्छी द्वारा प्रमार्जित करके प्रयोग करना चाहिए। वहाँ जीवों के होने की आशंका हो तो प्रज्ञावान् श्रमण को विपरीत करतल से मृदुतापूर्वक स्पर्श करके उस स्थान को देख लेना चाहिए ताकि जीवों की हिंसा न हो। ऐसा जानकर ही उस स्थान का प्रयोग करना चाहिए।' यदि उस प्रथम स्थान पर जीव हों अर्थात् वह स्थान अशुद्ध हो तो आचार्य द्वितीय स्थान पर शौचादि करने की अनुमति देते हैं। द्वितीय स्थान के परीक्षण से भी वह अशुद्ध हो तो तृतीय स्थान की अनुमति देते हैं। फिर भी यदि शीघ्रतावश अनिच्छा से अशुद्ध स्थान पर शौचादि का त्याग हो जाय तो आचार्य द्वारा उस श्रमण को गुरु-प्रायश्चित नहीं देना चाहिए । इस प्रकार निर्जन्तुक (शुद्ध) भूमि-प्रदेश (स्थंडिल) में मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापनिका समिति है। उपयुक्त समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए प्रतिपादित हैं। इन पांच समितियों में मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति-ये तीन गुप्तियाँ मिलकर 'अष्ट-प्रवचनमाता' नाम से प्रतिपादित हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में जहाँ समितियों के उपयुक्त पाँच भेदों का वर्णन है। वहीं इन अष्टप्रवचनमाता को ही समितियों के आठ भेद भी कहा है। जिनमें जिनेन्द्र कथित द्वादशांग रूप समग्र प्रवचन अन्तर्भूत माना है ।" वस्तुतः महाव्रतमूलक सम्पूर्ण श्रमणाचार का व्यवहार उपयुक्त पांच समितियों के द्वारा संचालित होता है। इनके आधार पर महाव्रतों का निर्विघ्न रूप से पालन किया जाता है। ये समितियाँ महाव्रतों तथा सम्पूर्ण आचार की परिपोषक प्रणालियाँ हैं । महाव्रतों की रक्षार्थ गमनागमन, भाषण, भिक्षादि ग्रहण, वस्तुओं के आदान-प्रदान तथा मलमूत्रादि विसर्जन-इन पांच क्रियाओं में प्रमाद रहित सम्यक्-प्रवृत्ति को समिति कहा गया है । १. रादो दु पमज्जित्ता पण्णसमणपेक्खिदम्मि ओगासे । आसंकविसुद्धीए अपहत्थगफासणं कुज्जा ।। मूलाचार ५।१२६. २. जदि तं हवे असुद्ध बिदियं अणुण्णए साहू। लहुए अणिच्छयारे ण देज्ज साधम्मिए गुरूए । वही ५।१२७. ३. वहो, ५।१२८. ४. एयाओ पंच समिईओ........उत्तराध्ययन २४।१९,२६. ५. एयाओ अट्ठ समिईओ समासेण वियाहिया। - दुवालसंगं जिणक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं । उत्तराध्ययन २४।३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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