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मूलगुण : ८३ सामान्यतः वस्तुओं को उठाने-रखने में चार दोषों की संभावना रहती है।-(१) सहसा दोष,-बिना देखे सहसा कोई पुस्तक आदि उठाना-रखना, (२) अनाभोगित दोष-अस्थिर चित्तवृत्ति से बिना देखे वस्तुयें उठाना-रखना, (३) दुष्प्रमार्जित दोष-पुस्तकादि को पिच्छिका से असावधानी पूर्वक प्रमार्जन करना, (४) अप्रत्यवेक्षण-वस्तुओं को बिना देखे रखकर या ग्रहण करके कुछ काल बाद प्रमार्जनार्थ देखना ।-इन चारों दोषों के परिहारपूर्वक वस्तुओं को ग्रहण या निक्षेपण करना चाहिए। तभी इस समिति का परिपूर्ण पालन किया जा सकता है । इन चार दोषों को इस समिति के अतिचार भी मान सकते हैं।
५. उच्चारप्रस्रवण (प्रतिष्ठापनिका) समिति- इसका अर्थ है मल-मूत्र आदि के विसर्जन में निर्जन्तुक तथा निर्जन स्थान का ध्यान रखना । श्रमण के निर्दोष एवं विवेकपूर्ण जीवन में समस्त विशुद्ध चर्याओं का ही विधान है। इस समिति का विधान भी मल-मूत्रादि को यत्र-तत्र त्याग का निषेध, लोकापवाद से रक्षा तथा अहिंसादि महाव्रतों की रक्षार्थ किया गया है । श्रमण को मलमूत्र का विसर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ एकान्त हो, हरित वनस्पति तथा त्रस जीवों से रहित, और गाँव आदि से दूर हो । जहाँ कोई देख न सके, कोई विरोध न करे, ऐसे विस्तीर्ण क्षेत्र में मल-मूत्रादि का त्याग करना पंचम प्रतिष्ठापनिका या उत्सर्ग समिति है।
मल-मूत्रादि त्याग के योग्य कुछ स्थानों का मूलाचारकार ने उल्लेख भी किया है, जैसे-वनदाहकृत, कृषिकृत, मषिकृत, स्थंडिल भूमि (शौचयोग्य रेगिस्तानी या ऊषरभूमि) तथा अनुपरोध्य (लोगों के द्वारा वर्जित न हो), विस्तृत, निर्जन्तुक एवं विविक्त प्रदेश (स्थल) विशेष । ऐसी ही अचित्त भूमि को पिच्छिका द्वारा प्रमार्जन करके मल-मूत्रादि का त्याग करना चाहिए ताकि जीव हिंसा की सम्भावना न हो । यदि रात्रि में शौचादिक त्याग की आवश्यकता महसूस हो तो आचार्य १. सहसाणाभोइयदुप्पमज्जिद अप्पच्चवेक्खणा दोसा।
परिहरभाणस्स हवे समिति आदाणणिक्खेवा ॥ मूलाचार ५।१२३. २. एगते अच्चिते दूरे गूढ़े विसालमविरोहे ।।
उच्चारादिच्चाओ, पदिठावणिया हवे समिदी ।। मूलाचार १।१५. ३. वणदाहकिसिमसिकदे थंडिल्लेणुप्पोध वित्थिण्णे ।
अवगदजंतु विवित्ते उच्चारादी विसज्जेज्जो ॥ उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंघाणयादियं दध्वं । अच्चितभूमिदेसे । पडिलेहित्ता विसज्जेज्जो ॥ मूलाचार ५।१२४-१२५.
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