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८२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन आदि छयालीस दोषों से रहित, असाताकर्म के उदय से उत्पन्न बुभुक्षा के प्रतिकारार्थ तथा वैय्यावृत्त्यादि धर्मसाधन सहित, मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना आदि नौ विकल्पों से रहित ठंडे-गरम आदि रूप, राग-द्वेष रहित, समभाव पूर्वक विशुद्ध आहार ग्रहण करना, एषणा समिति है।' यह भोजन संबंधी वस्तुओं को निर्दोष रूप में ग्रहण करने की विधि है। क्योंकि श्रमण न तो बल या आयु बढ़ाने के उद्देश्य से आहार करते हैं न स्वाद के लिए और न शरीर उपचय या तेजवृद्धि के लिए ही। वे तो ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार करते हैं ।
उत्तराध्ययन में एषणा के तीन भेद बताये हैं-१, गवेषणा-उद्गम और उत्पादन दोषों के शोधन पूर्वक आहार की गवेषणा करना। २. ग्रहणषणा-शंकित आदि एषणा के दस दोषों का शोधन कर आहार ग्रहण करना । ३. परिभोगैषणा-इसके अनुसार आहार में संयोजना, अप्रमाण, अंगार धूम और कारण-इन चार दोषों का शोधन करना चाहिए ।
उद्गमादि दोषयुक्त आहार लेना, मन, वचन से आहार की स्वयं सम्मति देना, उसकी प्रशंसा करना, प्रशंसा करने वालों के साथ रहना, प्रशंसा में दूसरों को प्रवृत करना-ये एषणा-समिति के अतिचार है।
४. आदान-निक्षेपण समिति : शास्त्र आदि रूप ज्ञानोपधि, पिच्छिका रूप संयमोपधि, शुद्धता हेतु कमण्डलु रूप उपधि तथा इसी तरह की अन्य संस्तर आदि उपधि को ग्रहण करते या रखते समय प्रयत्न, और उपयोग पूर्वक अपने नेत्रों से स्थान एवं द्रव्य को अच्छी तरह देखकर पिच्छिका से उनका प्रमार्जन करना ताकि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों का भी घात न हो-ऐसा सोचकर उक्त उपकरणों का उपयोग करना आदान निक्षेपण समिति है।
१. छादालदोससुद्धं कारणजुत्तं विसुद्धणवकोडी ।
सीदादीसमभुत्ती परिसुद्धा एसणासमिदी ।। मूलाचार १११३, नियमसार ६३. २. मूलाचार ६१६२.
३. उत्तराध्ययन २४।११।१२. ४. भगवती आराधना विजयोदया टीका १६।६२।७. ५. णाणुवहि संजमुवहिं सउचुवहिं अण्णमप्प उवहिं वा ।
पयदं गहणिक्खेवो समिदी आदाणणिक्खेवा ॥ मूलाचार सवृत्ति १११४. .....- आदाणे णिक्खेवे पडिलेहिय चक्खुणा पमज्जेज्ज ।
. दव्वं च दवठाणं संजमलद्धीय सो भिक्खू ॥ वही ५।१२२.
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