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७८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
१. क्रोध के वशीभूत होकर भी व्यक्ति असत्य बोलते हैं । जैसे—- क्रोध में ही मित्र को शत्रु आदि कह देना क्रोधाश्रित असत्यवचन है ।
२. मान के आश्रित होकर असत्य कह देना । जैसे निर्धन या बुद्धिहीन होते हुए भी झूठी प्रशंसा के लिए अपने को बड़ा घनवान् या बुद्धिमान् बता देना । मानाश्रित असत्य वचन है ।
३. धोखा देकर दूसरों को ठगने के उद्देश्य से झूठ बोलना मायाश्रित असत्य वचन है ।
४. लोभवश अपनी अल्पमूल्य वस्तु को बहुमूल्य बताना लोभाश्रित असत्यवचन है |
५. प्रेम के वशीभूत होकर कह देना कि "मैं तो आपका दास हूँ ।" प्रेमाश्रित असत्यवचन है ।
६. द्वेषवश नीचा दिखाने के उद्देश्य से गुणी को निर्गुण, विद्वान् को मूर्ख तथा धनवान को दरिद्र कह देना द्वेषाश्रित असत्यवचन है ।
७. हँसी-मजाक आदि के उद्देश्य से किसी की कोई वस्तु उठा लेना और पूछने पर मना कर देना हास्याश्रित असत्य वचन है ।
८. दण्ड एवं अपमान आदि के भय से झूठ बोलना भयाश्रित असत्य वचन है |
९. आख्यायिका में अयथार्थ का गुंफनकर सरसता के सहारे असत् को सत् रूप में प्रस्तुत करना आख्यायिका असत्यवचन है ।
१०. दूसरों को पीड़ा देने की भावना से उपघातकारक वचन बोलना उपघाताश्रित असत्यवचन है ।
दशवैकालिक की अगस्त्य चूर्णि ' में मृषावाद (असत्यवचन) के चार भेद बताये हैं ।
सद्भाव प्रतिषेध - विद्यमान वस्तु का निषेध करना । जैसे जीव, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष आदि नहीं है ।
२ असद्भाव उद्भावनः -- असद् वस्तु का अस्तित्व बताना । जैसे आत्मा सर्वगत सर्वव्यापी न होने पर भी उसे वैसा अथवा अणुमात्र कहना ।
३. अर्थान्तर - एक वस्तु को दूसरी वस्तु कहना जैसे गाय को घोड़ा आदि कहना |
४. गर्हा - दोष प्रगट करके किसी को कष्टकारी वचन बोलना, जैसे अन्धे को अन्धा या काने को काना कहना ।
१. दशवैकालिक अगस्त्यसिंह कृत चूर्णि पृ० १४८.
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