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मूलगुण : ७७ हैं। २. सत् की असत् से उपमा--जैसे यह कहना कि इन्द्र में इतना बल है कि वह मेरुपर्वत को दण्ड और पृथ्वी को छत्र बना सकता है किन्तु ऐसा करता नहीं है। ३. असत् की सत् से उपमा । ४. असत् की असत् से उपमा-जैसे यह कहना कि चन्दन का पुष्प आकाश पुष्प की तरह है। इसमें उपमा-उपमेय दोनों असत् हैं।
सत्य के पूर्वोक्त दस भेदों का विवेचन अनेक जैन शास्त्रों में उपलब्ध है। कुछ में सत्य के इन भेदों के नाम आदि में अल्पाधिक अन्तर भी है, जैसेस्थानांगसूत्र में नवम योग-सत्य माना है जिसका अर्थ है-क्रियाविशेष के सम्बन्ध से व्यक्ति को सम्बोधित करना । जैसे—किसी दण्डधारी व्यक्ति को "दण्डी" कहकर बुलाने पर वह आ जाता है । क्योंकि उसके पास दण्ड होने से वह अपने आप को दण्डी समझता है, दूसरे भी उसे दण्डी समझते हैं । आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में सत्य के दस भेद इस प्रकार बताये है-नाम, रूप, स्थापना, प्रतीत्य, संवृत्ति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समय ।२ इनमें सम्मतसत्य को संवृत्तिसत्य नाम से उल्लिखित किया है। अन्य भेदों में संयोजनासत्य का अर्थ है-धूप, उबटन आदि में या कमल, मगर, हंस, सर्वतोभद्र आदि में सचेतन, अचेतन द्रव्यों के भाव, विधि, आकार आदि की योजना करने वाला वचन । देश सत्य से तात्पर्य है-ग्राम, नगर, राज्य, गण, मत, जाति, कुल आदि धर्मों के उपदेशक वचन । आगमों में वर्णित पदार्थों का यथार्थ निरूपण करने वाला वचन समयसत्य है । अन्य भेद मूलाचार के सदृश ही हैं।
२. मृषा (असत्यवचन) : वचन के पूर्वोक्त चार भेदों में द्वितीय मृषा (असत्य) वचन है। इसके अनेक भेद हो सकते हैं। स्थानांगसूत्र में असत्य बोलने के कारणों की दृष्टि से मृषा के भी भेद किये हैं। १. क्रोध, २. मान, ३. माया. ४. लोभ, ५. प्रेम, ६. द्वेष, ७. हास्य, ८. भय, ९. आख्यायिका, और १०. उपघात । इन कारणों के आश्रित होकर व्यक्ति असत्य बोलता है। १. जणवय सम्मय ठवणा, णामे रूवे पडुच्चसच्चे य ।
ववहार भाव जोगे दसमे ओवम्म सच्चे य । स्थानांग १०८९. २. दशविधः सत्यसद्भावः-नाम-रूप-स्थल-स्थापना-प्रतीत्य-संवृत्ति-संयोजना
जनपद-देश-भाव-समयसत्यभेदेन । तत्त्वार्थवार्तिक १.२०.१२. पृ० ७५. ३. दसविधे मोसे पण्णत्ते, तं जहा
कोधे माणे माया, लोभे पिज्जे तहेव दोसे य ।। हास भए अक्खाइय, उवघात णिस्सिते दसमे ॥ स्थानांग १०.९०.
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