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७६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन पदार्थों को लम्बा या स्थल कहना ।' जैसे मध्यमा अंगुली की अपेक्षा अनामिका को छोटी एवं कनिष्ठा अंगुली की अपेक्षा बड़ी कहना । . ७. व्यवहार-सत्य-नैगम, संग्रह आदि नयों की प्रधानता से जो वचन बोला जाय वह व्यवहार सत्य है । जैसे चावल पकाने की तैयारी में संलग्न व्यक्ति से पूछने पर कि क्या कर रहे हो ? वह उत्तर दे कि 'मैं भात पका रहा हूँ'। चूंकि भरत तो स्वयं पके हुए चावल हैं तब चावल पकायेगा, न कि भात । फिर भी व्यवहार से ऐसे कथन सत्य मान लिये जाते हैं। इसी तरह जब कोई पथिक पूछता है कि यह रास्ता कहाँ जाता है ? तब इसके उत्तर में कह दिया जाता है कि अमुक नगर को । वस्तुतः रास्ता वहीं रहता है, जाता तो व्यक्ति है किन्तु लोक व्यवहार में उक्त कथन सत्य होने से इसे व्यवहार सत्य कहा जाता है ।
८. सम्भावना-सत्य-असम्भवता का निराकरण करते हुए वस्तु के किसी धर्म का निरूपण करना सम्भावना सत्य हैं। जैसे यह कहना कि यदि इन्द्र चाहे तो पृथ्वी को पलट सकता है । ३
९. भाव-सत्य-सत्य वचन भी यदि हिंसादि दोष सहित हों तो उन वचनों को भी नहीं बोलना अर्थात् हिंसा आदि-दोष रहित योग्य वचन बोलना भावसत्य है। जैसे किसी कसाई द्वारा पूछने पर कि 'इघर से गाय को जाते हुए देखा है ? इसका उत्तर-मैंने नहीं देखा'-कह देना भाव-सत्य के अन्तर्गत है।"
१०. उपमा-सत्य-किसी एक अंश की भी समानता को लेकर एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना करना उपमा सत्य है। जैसे पूजन-कार्य में प्रयुक्त पीले चावलों को सादृश्य के कारण पुष्प कह देना। इसी तरह किसी स्त्री को चंद्रमुखी कहना । पल्योपम, सागरोपम आदि भी उपमा-सत्य के उदाहरण हैं ।
उपमा के चार भेद हैं-१. सत् की सत् से उपमा अर्थात् विद्यमान पदार्थ को विद्यमान पदार्थ से हो उपमित करना । जैसे नेत्र कमल के समान विकसित
१-२. मूलाचार ५।११४.
३. वही ५।११५. ४. सत्यमपि हिंसादि दोषसहितं न वाच्यमिति भावसत्यम् ।
मूलाचार वृत्ति ५।११६. ५-६. हिंसादि दोसविजुदं सच्चमकप्पियमवि भावदो भावं ।
ओवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोवमादीया ॥ वही ५।११६. ७. अनुयोगद्वार २३१-२३२ पृ० २३.
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