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मूलगुण: ७५ २. सम्मतसत्य - प्राचीन विद्वानों, आचार्यों या बहुजन द्वारा मान्य किये गए अर्थ में शब्दों का प्रयोग करना सम्मत सत्य है । बहुजन सम्मत शब्द जब सर्वसाधारण अर्थ में रूढ़ हो जाते हैं तब वे सम्मत सत्य बन जाते हैं । जैसे राजा की स्त्री मनुष्य जाति की स्त्री होते हुए भी 'महादेवी' शब्द से रूढ़ है । इसी तरह पङ्कज शब्द का यौगिक अर्थ " कीचड़ में उत्पन्न होने वाला" है, किन्तु लोक में यह " कमल" अर्थ में मान्य है । अतः पङ्कज का अर्थ कीचड़ में उत्पन्न होने वाले "मेंढक" आदि नहीं करके "कमल" अर्थ ही करना सम्मत सत्य है ।
३. स्थापना सत्य — समान आकार या भिन्न आकार वाली वस्तु में किसी व्यक्ति विशेष की स्थापना करके उसे उसी रूप में मानना अर्थात् किसी वस्तु में उससे भिन्न गुणों का समारोप करके उसे तद्रूप मानना स्थापना सत्य है । जैसे पत्थर की प्रतिमा में अर्हन्तादि की स्थापना करके उसे तद्रूप मानकर आदर, पूजन आदि करना । इसी तरह शतरंज के मोहरों को हाथी, घोड़ा, वजीर आदि मानना तथा नामों से सम्बोधित करना । यद्यपि ये मोहरे न तो उन रूपों से युक्त हैं और न वैसे गुणों से युक्त, किन्तु उनमें उस प्रकार की स्थापना कर लेने से इन्हें हाथी, घोड़ा आदि मानते हैं ।
४. नाम - सत्य - गुणों की अपेक्षा न करके व्यवहार के लिए देवदत्त आदि नाम रखना | चूँकि वह देवों द्वारा प्रदत्त नहीं है किन्तु व्यवहार के लिए उसे 'देवदत्त' कहना नाम - सत्य है । अर्थात् वैसे गुण न होने पर भी व्यक्ति विशेष का या वस्तु विशेष का वैसा नाम रखकर उसे उस नाम से सम्बोधित करना ।
५. रूप - सत्य - रूप विशेष की प्रधानता के कारण किसी व्यक्ति या द्रव्य को काला, सफेद आदि वर्ण वाला कहना रूप सत्य है । जैसे बगुला पक्षी कई वर्णों के होते हैं किन्तु श्वेत वर्ण की प्रधानता के कारण उन्हें श्वेत कह दिया जाता है।
६. प्रतीत्य- सत्य — इसे आपेक्षिक सत्य भी कहते हैं । अपेक्षा विशेष से वस्तु को छोटी-बड़ी कहना प्रतीत्य सत्य है । विवक्षित पदार्थ की अपेक्षा से दूसरे पदार्थ के स्वरूप का कथन करना - जैसे छोटे या पतले पदार्थ की अपेक्षा से अन्य
१. मूलाचार ५।११२.
२-४ ठवणा ठविदं जह देवदादि णामं च देवदत्तादि ।
उक्कडदरोत्ति वण्णे रूवे सेओ जध
बलाया ||
- मूलाचार वृत्ति सहित ५। ११३.
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