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मूलगुण : ७३ २. भाषा समिति :--भाषा विषयक संयम को भाषा समिति कहते हैं। अर्थात् किसी को मेरे वचनों से किसी प्रकार की पीड़ा न पहुँचे इस उद्देश्य से पैशून्य (मिथ्यारोपण)हास्य, कर्कश,पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा तथा राग-द्वेष-वर्धक विकथाओं आदि का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना भाषा समिति है।' द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सत्यवचन तथा सामान्यवचन (असत्यमृषा)-इन वचनों को मृषावादादि दोष एवं हिंसादि पापरहित सूत्रानुसार बोलना शुद्ध भाषासमिति है। भाषा समिति युक्त वाणी को वचन सुप्रणिधान कहा है तथा वाणी का दुरुपयोग, कटु शब्दों का उच्चारण वचन-दुष्प्रणिधान कहा है । उत्तराध्ययन में कहा है-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मुखरता और विकथा-इन आठ दोषों से रहित समयानुकूल परिमित एवं निर्दोष भाषा का व्यवहार ही भाषा समिति है । श्रमण को वैसी कोई भी भाषा नहीं बोलना चाहिए जो पाप प्रवृत्ति युक्त (सावद्य), निन्दाजनक, कर्कश, धमकीयुक्त, गुप्त मर्म को खोलने वाली हो, चाहे ये भले ही सत्य क्यों न हों। ४ भगवद्गीता में तो उद्वेग पैदा न करने वाले, सत्य, प्रिय, हित वचन बोलने तथा स्वाध्याय का अभ्यास करने को वाणी का तप कहा है। सत्पुरुष श्रमण को विनय रहित कठोर भाषा तथा धर्म विरुद्ध वचनों का प्रयोग वर्जनीय है । वे नेत्रों से योग्य-अयोग्य सब देखते हैं, कानों से सब तरह के शब्द सुनते हैं, परन्तु वे मूक की तरह रहते हैं । लौकिक कथा भी नहीं करते, अपितु वे निर्विकार, उद्धृत चेष्टा रहित, समुद्र के सदृश निश्चल एवं गम्भीर होकर रहते हैं । अतः ऐसे पापभीरू और गुणाकांक्षी मुनि
१. पेसुण्णहासकक्कस परणिंदाप्पप्पसंसाविकहादी । वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी हवे कहणं ॥
-मूलाचार १११२, नियमसार ६२, दशवकालिक २४।९-१० । २. सच्चं असच्चमोसं अलियादीदोसवज्जमणवज्जं । वदमाणस्सणुवीची भासास मिदी हवे सुद्धा ॥
-मूलाचार ५।११०, भगवती आराधना ११९२ । ३. उत्तराध्ययन २४।९-१०, योगशास्त्र १।३७. ४. आचारांग २।४।१, बृहत्कल्पभाष्य उ० ६. ५. अनुगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तव उच्यते ॥ भगवद्गीता १७११५. ६. मूलाचार ९।८७, ८८, ९३.
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