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७२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
(कुमार्ग) का वर्जन करके प्रासुक मार्ग पर ही गमन करना चाहिए । ४. यतनाद्रव्य (आँखों से देखकर ), क्षेत्र ( युग प्रमाण भूमि को देखकर ), काल ( जबतक चले तबतक देखे) और भाव ( उपयोग पूर्वक ) यतना के इन चार प्रकारों का ध्यान रखकर सावधानी पूर्वक गमन करना चाहिए। साथ ही इन्द्रिय-विषयों और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर मात्र गमन-क्रिया में ही तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्त्व देकर उपयोगपूर्वक चले । '
चलते समय बातचीत, अध्ययन, चिन्तन आदि कार्यों का भी निषेध है । पर न तो गमन ही सावधानी पूर्वक उद्वेग-रहित होकर तथा चित्त की
क्योंकि इन कार्यों को करते हुए चलने होगा और न ये कार्य । श्रमण को धीमे, आकुलता मिटाकर चलना चाहिए । २
इस प्रकार श्रमण को गमन के समय जिन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए वे इस तरह हैं - ( १ ) सावधानी पूर्वक सामने की चार हाथ भूमि देखते हुए चलना, (२) हाथ-पैरों को आपस में टकराकर नहीं चलना, ( ३ ) भय और विस्मय का त्याग करके चलना, (४) कूदकर भागकर नहीं, अपितु मध्यम गति से चलना चाहिए, (५) हरी वनस्पति, त्रण- पल्लव आदि से एक हाथ दूर रहकर चलना, (६) वनस्पति, जलकायिक आदि जीवों की हिंसा की सम्भावना से युक्त छोटे रास्ते से नहीं जाकर इनसे रहित लम्बे रास्ते से ही गमन करना, (७) वर्षा के कारण मार्ग में उत्पन्न छोटे-छोटे जीव-जन्तु और अंकुरित वनस्पति जानकर चातुर्मास प्रारंभ कर देना चाहिए, (८) वर्षा ऋतु के पश्चात् भी मार्ग जीव-जन्तु और वनस्पति से रहित न हो तो मुनि भ्रमण न करे, (९) जिन मार्गों में चोर, म्लेच्छ एवं अनार्य लोगों के भय की सम्भावना हो अथवा जिस मार्ग में युद्धस्थल पड़ता हो तो उन्हें छोड़कर निरापद मार्गों से ही गमनागमन करना चाहिए । (१०) प्रसंगवशात् मार्ग में सिंह आदि हिंसक पशु आदि दिखाई दें तो पेड़ों पर न चढ़े, न पानी में कूदे और न उन्हें मारने के लिए शस्त्र आदि की मन में इच्छा ही करे, अपितु शान्तिपूर्वक निर्भय होकर गमन करते रहना चाहिए | (११) मूलाचार के अनुसार गमन काल में जब धूप से छाया में या छाया से धूप में जाये, तब प्रथमतः अपने शरीर का मयूर - पिच्छि से प्रमार्जन अवश्य कर लेना चाहिए । ३ गमन के समय इन सब विधानों का प्रयोजन प्राणिहिंसा निरोध ही है ।
१. उत्तराध्ययन २४।५-८. ३. कुन्द० मूलाचार ५।१२४ ।
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२. दशवैकालिक ५।१।२.
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