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________________ मूलगुण : ७१ है । शान्त्याचार्य ने भी यही अर्थ किया है । २ बौद्ध परम्परा के विशुद्धिमग्ग में तथा आयुर्वेद के अष्टांगहृदय में भी इसी आशय का उल्लेख है । जिनदास महत्तर ने युग का शरीर' अर्थ किया है। इसका आशय बताया है कि मुनि को अपने शरीर-प्रमाण आगे देखकर चलना चाहिए । गाड़ी से सम्बन्धित युग का यह अर्थ है कि जैसे गाड़ी के सामने आगे का भाग कम चौड़ा और उसके बाद क्रमशः अधिक विस्तृत होता जाता है इसी प्रकार श्रमण की दृष्टि भी होनी चाहिए । युग का ही लौकिक अर्थ गाड़ी (बैलगाड़ी आदि) का जुआ भी होता है । इस दृष्टि से गाड़ी के जुए की लम्बाई के बराबर आगे के मार्ग को देखकर चलना चाहिए । दशवकालिकचूणि में कहा है-यदि चलते समय दृष्टि को बहुत दूर डाला जाए तो सूक्ष्म जीव देखे नहीं जा सकते और उसे अत्यन्त निकट रखा जाए तो सहसा पैर के नीचे आने वाले जीवों को टाला नहीं जा सकता, इसलिए शरीर-प्रमाण क्षेत्र देखकर चलने का विधान है। उत्तराध्ययन में ईर्यासमिति के चार कारण बताये है--१. आलम्बन, २. काल, ३. मार्ग तथा ४. यतना। संयत को इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या समिति पूर्वक विचरण करना चाहिए । इनमें १. ईर्या समिति का आलम्बन ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इनका आलम्बन लेकर ही गमन करना चाहिए, अन्य प्रयोजन से नहीं। २. काल-ईर्या समिति का काल दिवस है । अर्थात् दिन में ही गमन करना चाहिए, रात में नहीं। ३. मार्ग-साधु को उत्पथ १. (क) युगमात्रं हस्तचतुष्टय प्रमाणम्--मूलाचार वृत्ति ५।१०६. (ख) युगान्तरं चतुर्हस्तप्रमाणं प्रेक्षते पश्यतीति युगान्तरपेक्षी तेन युगान्तर प्रेक्षिणा-वही १।११. २. युगमात्रं च चतुर्हस्तप्रमाणं प्रस्तावत्क्षेत्रं प्रेक्षेत-उत्तराध्ययन (२४।७) बृहद्वृत्ति पत्र ५१५. ३. "युगमत्तदस्सी-विसुद्धिमग्ग १।२. ४. विचरेद् युगमात्रदृक्-अष्टांगहृदय सूत्रस्थान २।३२. ५. जुगं सरीरं भण्णइ-दशवैकालिक (५।१।३) जिनदासचूणि पृष्ठ १६८. ६. तावमेत्तं पुरओ अंतो संकुडाए बाहि वित्थडाए सगडुद्धियाए दिट्ठीए -दशवकालिक जिनदास चूणि पृ० १६८. ७. दशवकालिक (५।१३)जिनदासचूणि पृ० १६८ तथा अगस्त्यसिंह चूणि पृ० ९९. . ८. आलम्बणेण कालेण मग्गेण जयणाइ य । चउकारणपरिसुद्धं संजए इरियं रिए ॥ उत्तराध्ययन २४।४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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