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६४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
२. सत्य - महाव्रत की भावनायें - (१) क्रोध, (२) भय, (३) लोभ, (४) हास्य इनका प्रत्याख्यान या त्याग तथा ( ५ ) अनुवोचि भाषण अर्थात् विचारपूर्वक सूत्र ( आगम) के अनुसार बोलना ' ।
आचारांग, समवायांग तथा प्रश्नव्याकरण --- इन ग्रन्थों में मूलाचार के ही समान इस महाव्रत की पाँच भावनाओं का प्रतिपादन है । किन्तु चारित्तपाहुड में पंचम अनुवोचि भाषण के स्थान पर अमोह - भावना का उल्लेख आया है । पर इनके टीकाकार ने एक गाथा उद्धृत करके 'अमोह' का अर्थ 'अनुवीचि - भाषण - कुशलता' ही किया है
।
३ अदत्तपरिवर्जन (अचौर्य) महाव्रत की भावनायें : (१) याचा प्रतिसेवीपुस्तक आसनादि का याचनापूर्वक ग्रहण, (२) समनुज्ञापना - प्रतिसेवी - परोक्ष में गृहीत वस्तु के ग्रहण की सूचना देना, (३) अनन्यभाव - प्रतिसेवी - पर वस्तु का अनात्म भाव से सेवन, (४) त्यक्त प्रतिसेवी ( विमोचितावास) - जिसकी अन्य किसी को आवश्यकता नहीं है, ऐसा छोड़ा हुआ गृहादि श्रामण्ययोग्य वस्तु का सेवन, (५) साधर्मोपकरण अनुवीचि -- साधार्मिक श्रमण के शास्त्र, कमंडलु आदि का आगमानुकूल सेवन ।
चारित पाहुड में इस महाव्रत की निम्न भावनाओं का उल्लेख किया है, जो मूलाचारोल्लिखित भावनाओं से भिन्न हैं—-शून्यागार निवास, विमोचितावास, परोपरोध न करना, एषणा शुद्धि तथा साधर्म-सह-अविसंवाद अर्थात् साधर्मिक के साथ विसंवाद न करना । आचारांग में इस महाव्रत की भावनायें इस प्रकार हैं - (१) अनुवीचि - मितावग्रह - याचन विचारपूर्वक आगमानुसार आवश्यक स्थान या अल्प पदार्थों की याचना, (२) अनुज्ञापित - पानभोजन - विधिपूर्वक
१. कोहभय लोहहासपइणा अणुवीचि भासणं चेव ।
बिदियस्स भावणाओ वदस्स पंचेव ता होंति ।। मूलाचार ५ । १४१. २. आचारांग २।३।१५, समवायांग २५, प्रश्नव्याकरण द्वितीय संवरद्वार सप्तम
अध्ययन.
३. कोहभय हास लोहा मोहा विवरीय भावणा चेव-चारित पाहुड ३३. ४. अकोहणो अलोहो य भवहस्स विवज्जिदो ।
अणुवीचि भास कुसलो विदियं वदमस्सिदो ॥ चारित पाहुड टीका ३३. ५. जायणसमणुण्णमणा अणण्णभावोवि चत्तपडिसेवी ।
साधम्मओवकरणस्स णुवीची सेवणं
६. चारित पाहुड ३४, तत्त्वार्थसूत्र ७।६.
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चावि । मूलाचार ५। १४२.
७. आचारांग २।३।१५.
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