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५२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ५. सात अन्य मूलगुणः-लोच (केशलोच), आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन,
___ अदन्तघर्षण, स्थितभोजन और एकभक्त ।। श्रमणाचार का प्रारम्भ उपर्युक्त मूलगुणों से होता है। ये श्रमणधर्म की आधारशिला हैं। पंचाध्यायी में कहा है-सम्पूर्ण मुनिधर्म इन समस्त मूलगुणों से सिद्ध होता है ।' वृक्षमूल के समान मुनि के ये अट्ठाईस मूलगुण हैं । कभी भी इनमें न तो कोई न्यूनता होती है और न अधिकता। इनमें लेशमात्र की न्यूनता साधक को श्रमणधर्म से च्युत कर देती है। वस्तुतः श्रमणधर्म का पालन अपने आप में महान् साहस और दृढ़ता का प्रतीक है जो साधारण व्यक्तियों द्वारा साध्य नहीं है । इसमें मुनि को अपनी मन, वचन और काय की अन्यथा प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण करते हुए अपने स्वरूप में मग्न रहकर आत्मोत्कर्ष हेतु निरन्तर पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। वैषयिक तृष्णा का दमन और आत्मशक्ति का जागरण ही विकृति से प्रकृति की ओर आने में प्रमुख सहायक है । इस प्रकार के साधनामय जीवन का पथिक यही दृढ़ इच्छाशक्ति लेकर आगे बढ़ता है कि शरीर चला जाए पर साधना या संयमाचरण में किंचित भी आँच नहीं आना चाहिए। जीवन के जिस क्षण श्रमणधर्म स्वीकार किया जाता है, उस क्षण 'सावज्जकरणजोगं सव्वं तिविहेणतियकरणविसुद्धं वज्जति'३ अर्थात् सभी प्रकार के सावद्य (हिंसादि दोष युक्त) क्रियारूप योगों का मन, वचन, काय तथा कृत (करने), कारित (कराने) और अनुमोदन से सदा के लिए त्याग कर देते है । जो श्रमण इन मूलगुणों का छेदकर (उल्लंघन कर) 'वृक्षमूल' आदि बाह्ययोग करता है, मूलगुण विहीन उस साधु के सभी योग किसी काम के नहीं । क्योंकि मात्र बाह्ययोगों से कर्मों का क्षय सम्भव नहीं होता । ऐसा मुनि कभी सिद्धि सुख को नहीं पाता, अपितु वह तो निरन्तर जिन लिङ्ग की विराधना करने वाला माना जाता है । मूलगुणों के अनन्तर पालन करने योग्य उत्तरगुणों
१. सर्वरेभि. समस्तैश्च सिद्धं यावन्मुनिव्रतम्-पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ७४४. २. यतेर्मलगुणाश्चाष्टाविंशतिर्मूलवत्तरोः ।
नात्राप्यन्यतमेनोना नातिरिक्ताः कदाचन ।। पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ७४३. ३. मूलाचार ९।३४. ४. मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादी य बाहिरं जोगं ।
बाहिरजोगा सव्वे मूलविहस्स किं करिस्संति ।। वही १०।२७. ५. मोक्खपाहुड ९८.
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