________________
यात्रा एवं आवास सम्बन्धी नियम : ७९ अथवा भिक्षणी का यदि बीच में हो दोष (अपराध) मालूम हो जाता था तो उसकी प्रवारणा स्थगित कर दी जाती थी। परन्तु यदि किसी भिक्ष अथवा भिक्षुणी की प्रवारणा समाप्त हो चुकी होती थी, तो वह प्रवारणा स्थगित नहीं मानी जाती थी।' जिस भिक्षु या भिक्षुणी का दृष्ट, श्रुत अथवा परिशंकित दोष सिद्ध हो जाता था, उसे नियमानुसार दण्डित कर शद्ध किया जाता था। परन्तु यदि दोष सिद्ध नहीं हो पाता था तो झूठे दोषारोपण लगाने वाले को ही दण्डित किया जाता था ।२ प्रवारणा के पश्चात् वह कहीं आने-जाने के लिए स्वतन्त्र थी। उसे कम से कम ५-६ योजन तक भ्रमण करने का विधान बनाया गया था। इस नियम का अतिक्रमण करने पर उसे प्रायश्चित्त का दण्ड दिया जाता था।
यद्यपि भिक्षुओं को भी संघ के समक्ष प्रवारणा करने का विधान था, परन्तु पूरे संघ के विद्यमान न होने पर वह दो, तीन की संख्या में अथवा अकेले भी प्रवारणा कर सकता था तथा इस प्रकार वह अपने को दोषों से शुद्ध कर सकता था। परन्तु इस तरह की छूट भिक्षुणियों को प्राप्त नहीं थी। उन्हें दोनों संघों के समक्ष प्रवारणा करनी पड़ती थी।
आवश्यकतानुसार प्रवारणा अत्यन्त संक्षिप्त की जा सकती थी, जैसेराजा की तरफ से विघ्न हो, चोर-डाकू का खतरा हो, साँपों या हिंसक जानवरों का भय हो या ब्रह्मचर्य को सुरक्षा में विघ्न उपस्थित होने का भय हो।"
आवास (विहार) सम्बन्धी नियम ___ जैन भिक्षुणी विहार (उपाश्रय) : वर्षाकाल के चार महीने एक स्थान पर तथा वर्षावसान के बाद वर्ष के शेष आठ महीने एक ग्राम से दूसरे ग्राम को विचरण करते हुए प्रत्येक भिक्षुणी को रुकने (ठहरने) की जगह खोजनी पड़ती थी। जहाँ वे रुकती थी, उसे ही उपाश्रय कहते थे । उपाश्रय की खोज बहुत ही सावधानीपूर्वक करनी पड़ती थी । इस सन्दर्भ में उसे अनेक निर्देश दिये गये थे। जीव-जन्तुओं तथा कीड़ों-मकोड़ों से
१. महावग्ग, पृ० १८९-९०. २. वही, पृ० १९१-९३. ३. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाचित्तिय, ४०. ४. महावग्ग, पृ० १७३. ५. वही, पृ० १८८-८९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org