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________________ ८० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ युक्त उपाश्रय में ठहरना निषिद्ध था । उपाश्रय यदि उद्देश्यपूर्वक बनाया गया हो, खरीदा गया हो या उधार लिया गया हो, तो ऐसे उपाश्रय में भिक्षुणियों को रुकने की अनुमति नहीं थी । इसी प्रकार उपाश्रय यदि सद्यः गोबर से लीपा-पोता गया हो, चूना लगाकर ठीक किया गया हो, धूप आदि से सुगन्धित किया गया हो या उक्त भवन का उपयोग अभी तक किसी दूसरे ने नहीं किया हो, तो नियमानुसार वे वहाँ नहीं ठहर सकती थीं । इस निषेध के मूल में यह भावना दृष्टिगोचर होती है कि गृहस्थ श्रावक के ऊपर उपाश्रय के लिए अतिरिक्त भार न पड़े । आचारांग में गृहस्थों के संसर्ग वाले उपाश्रय में ठहरना भिक्षुणी के लिए निषिद्ध किया गया है । यह निषेध इसलिए किया गया था कि ऐसे मकान में साध्वी के रोगी आदि होने पर विवश होकर गृहस्थ को उसकी सेवा करनी पड़ेगी । परन्तु बृहत्कल्पसूत्र में ऐसे उपाश्रय में भिक्षुणी को ठहरने की अनुमति दी गयी है, जिसमें आने-जाने का मार्ग गृहस्थ के घर के मध्य में से होकर हो ।" इसी प्रकार भिक्षुणी प्रतिबद्धशय्या वाले उपाश्रय में रह सकती थी । प्रतिबद्ध उपाश्रय वह है, जिसकी दिवालें अथवा उसका कोई भाग गृहस्थ के घर से जुड़ा हो। इन विरोधी नियमों को देखकर शंका का होना स्वाभाविक है, शंका का समाधान करते हुए बृहत्कल्पभाष्यकार का कहना है कि साध्वियों को ऐसे उपाश्रय में ठहरने का अभिप्राय इतना ही है कि यदि निर्दोष उपाश्रय न मिले तो साध्वी उसमें ठहर सकती है । भाष्यकार का कहना है कि ऐसे उपाश्रय में यदि गृहस्थ की पितामही, मातामही, माता, बुआ, बहन, लड़की आदि रहती है, तो साध्वी उसमें ठहर सकती थी, क्योंकि उनके साथ रहने में भिक्षुणियों की संयम विराधना की कोई सम्भावना नहीं रहती । " १. आचारांग, २/२/१/१; २/२/२/५. २. वही, _२/२/१/३. ३. वही, २/२/१/४-८. ४. वही, २/२/१/१०-१४, २/२/२/१-४. ५. बृहत्कल्पसूत्र, १ / ३४-३५. ६. वही, १/३३. ७. बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २६१६. ८. वही, २६१८ - २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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