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- ७८ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
वर्षावास के अवसान के तुरन्त पश्चात् उन्हें भिक्षु संघ के समक्ष प्रवारणा करनी पड़ती थी -अतः उनके लिए यह सुविधाजनक था कि वर्षाकाल के पश्चात् भिक्षु संघ की तलाश में इधर-उधर परिभ्रमण करने के बजाय वे भिक्षु संघ के साथ ही वर्षावास करें ।
अन्य नियमों की तरह प्रवारणा के सम्बन्ध में भी भिक्षुणियों के लिए अलग से नियम निर्धारित नहीं किये गये थे, अतः भिक्षुओं के नियम भिक्षुणियों के ऊपर भी लागू होते होंगे - यह अनुमान करना अनुचित नहीं ।
- प्रवारणा की तिथि :
प्रवारणा की दो तिथियाँ थीं - चतुर्दशी अथवा पूर्णमासी ।' वर्षावास की समाप्ति पर पड़ने वाली इन दो तिथियों (आश्विन या कार्तिक मास ) के दिन प्रवारणा करने का विधान था ।
प्रवारणा की विधि :
प्रत्येक भिक्षुणी सर्वप्रथम भिक्षुणो-संघ के समक्ष उपस्थित होती थी तथा विनीत भाव से कहती थी कि वर्षावास में देखे, सुने तथा परिशंकित अपराधों की मैं प्रवारणा करती हूँ । दोषी सिद्ध होने पर मैं उनका प्रति- कार करूँगी । इस प्रकार वह तीन बार संघ को सूचित करती थी । तदनन्तर उसे भिक्षु संघ के समक्ष भी इसी प्रकार की प्रवारणा करनी पड़ती थी । रोगी को भी संघ के समक्ष उपस्थित होना पड़ता था । यदि वह संघ के समक्ष जाने में असमर्थ होती थी, तो उसकी प्रवारणा कोई और भिक्षुणी कर सकती थी । परिस्थितिवश संघ को भी वहाँ स्वयं जाकर प्रवारणा लेने का निर्देश दिया गया था । ऐसी स्थिति में समग्र संघ के जाने का विधान था । *
प्रवारणा करना अत्यावश्यक था, परन्तु किसी भी परिस्थिति में दोषयुक्त प्रवारणा नहीं की जा सकती थी । प्रवारणा कर रहे भिक्षु
१. महावग्ग, पृ० १६८.
२. वही, पृ० १६७.
३. " संघ, आवुसो, पवारेमि दिवेन वा सुतेन वा परिसंकाय वा । वदन्तु मं आयस्मन्तो अनुकम्पं उपादाय । पस्सन्तो पटिकरिस्सामि"
- ४. वही, पृ० १६९.
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वही, पृ० १६७.
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