________________
यात्रा एवं आवास सम्बन्धी नियम : ७५.. अपना कार्य अच्छी प्रकार सम्पादित (पासादिकेन सम्पादेतू) करने की सलाह दी जाती थी। __ अज्ञानी, रोगी तथा यात्रा पर जाने वाला भिक्षु उपदेशक बनने से अस्वीकार कर सकता था । पर सामान्यतया भिक्षुणी-संघ के प्रार्थना करने पर कोई भिक्षु उपदेश देने से इन्कार नहीं करता था । मानत्त अथवा परिवास दण्ड का प्रायश्चित्त कर रहे भिक्षु को भी भिक्षुणी को उपदेश देने का अधिकार नहीं था ।
यदि भिक्षु-संघ द्वारा नियुक्त भिक्खुनोवादक भिक्षु बिना कारण के उपदेश स्थगित कर दे या उपदेश देने के समय चारिका के लिए चला जाय तो उसे दुक्कट के दण्ड का भागी बनना पड़ता था।
उपदेश सुनने का एक निश्चित स्थल होता था, जहाँ भिक्षणियों को जाना आवश्यक था। उस स्थान पर न जाने पर उन्हें दुक्कट का दण्ड लगता था । परन्तु यदि भिक्षुणी अशक्त या रोगी हो तो भिक्षु भिक्षुणीउपाश्रय में भी जाकर उपदेश दे सकता था । सामान्य अवस्था में भिक्षुणीउपाश्रय में उपदेश देने का विधान नहीं था ।
केवल योग्य तथा संघ की सम्मति से ही कोई भिक्ष भिक्षुणियों को उपदेश दे सकता था अन्यथा भिक्षु को भी पाचित्तिय दण्ड का भागी बनना पड़ता था । अंगुत्तर निकाय में भिक्खुनोवादक भिक्षु में निम्न आठ गुणों का होना आवश्यक बताया गया है :
(१) शोलवान हो तथा शिक्षापदों को सम्यक् रूप से सिखाने वाला हो। (२) बहुश्रुत हो। (३) भिक्खु-पातिमोक्ख तथा भिक्खुनी-पातिमोवख के नियमों का
ज्ञाता हो। (४) सूत्र तथा व्यञ्जन को भली प्रकार विभक्त कर निश्चित अर्थ
बताने वाला तथा हितकर वाणी बोलने वाला हो । १. चुल्लवग्ग, पृ. ३८४. २. वही पृ. ३८५. ३. महावग्ग, पृ. ६७. ४. चुल्लवग्ग, पृ० ३८३ ५. वही, पृ० ३८६. ६. पातिमोक्ख, भिक्खु पाचित्तिय, २३. ७. अगुत्तर निकाय, ८/६; पाचित्तिय पालि, पृ० ७७-७८.. .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org