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६६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ पार करने तथा रात्रि में एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाने का निषेध था। यह गम्भीर अपराध था और ऐसा करने पर उसे मानत्त का दण्ड दिया जाता था। इसी प्रकार कोई भी भिक्षुणी किसी गृहस्थ पुरुष, दास या मजदूर के साथ नहीं घूम सकती थी। उसे भिक्षुणियों के साथ ही भ्रमण करने का निर्देश दिया गया था। भिक्षुणी के निवास स्थान तथा उसके आस-पास के स्थान में यदि स्थिति अशान्त रहती थी-तो उसे वहाँ भी अकेले घुमने से मना किया गया था। भिक्षणियों के लिए अरण्यवास करने का निषेध था क्योंकि इस प्रकार के निर्जन स्थान में दुराचारी व्यक्तियों द्वारा उन पर बलात्कार किये जाने की सम्भावना हो सकती थी। __इन निषेधों के मूल में शील-सुरक्षा की चिन्ता अधिक दिखायो देती है । इसीलिए उन्हें कई भिक्षुणियों के साथ जाने का निर्देश दिया गया था, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वे कामातुर तथा दुराचारी व्यक्तियों से अपनी रक्षा कर सकें।
सामान्य अवस्था में बौद्ध भिक्षुणी को भ्रमण के समय किसी सवारी का प्रयोग करना निषिद्ध था, परन्तु रोगिणी भिक्षुणी को यान आदि के उपयोग की अनुमति दी गयी थी । वह शिविका (सिविका) और पालकी (पाटङ्कि) का उपयोग कर सकती थी। तुलना: - हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध-दोनों संघों की भिक्षुणियों को वर्षाकाल के चार महीने छोड़कर वर्ष के शेष आठ महीने भ्रमण करने की सलाह दी गयी थी। बौद्ध संघ में तो शिक्षमाणा को अपनी प्रत्तिनी के साथ कम से कम ५-६ योजन तक यात्रा करने का विधान था, अन्यथा वह पाचित्तिय दण्ड को पात्र समझी जाती थी। संघ के नियमानुसार जैन एवं बौद्ध दोनों भिक्षुणियों को अकेले यात्रा करने की अनुमति नहीं थी। इसके मूल में उनकी शील-सुरक्षा का प्रश्न था जिसके लिए जैन तथा बौद्ध धर्माचार्यों ने हर सम्भव प्रयत्न किया था। इसी कारण भिक्षुणियों १. पातिमोक्ख, भिक्खुनी संघादिशेस, ३. २. वही, १. ३. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाचित्तिय, ३७-३८. ४. चुल्लवग्ग, पृ० ३९९. ५. वही, पृ० ३९७.
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