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________________ ६४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ बताया गया है कि इन्हीं क्षेत्र की सीमाओं के भीतर तीर्थंकर के जन्म तथा निष्क्रमण की घटना घटी है। ___ जैसे-जैसे जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार बढ़ता गया, जैन भिक्षु-भिक्षुणियों के भ्रमण-क्षेत्र में भी विस्तार होता गया। उन्हें अन्य क्षेत्रों में यात्रा करने का निषेध इसीलिए किया गया था ताकि उन्हें आहार तथा उपाश्रय आदि प्राप्त करने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो । इसके अतिरिक्त भी उन्हें यात्रा सम्बन्धी अनेक मर्यादाओं का पालन करना पड़ता था। रास्ते में यदि घुटनों तक पानी मिले तो शरीर के किसी भाग के एक दूसरे से स्पर्श किये बिना सावधानी पूर्वक पार करने का निर्देश दिया गया था। आनन्द के लिए या गर्मी शान्त करने के लिए गहरे पानी में जाना निषिद्ध था। नदी या तालाब पार करते हुये वस्त्र के भीग जाने पर उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि वे शरीर या कपड़े को रगड़ें या मलें नहीं अपितु उसे अपने आप सूखने दें। यात्रा करते समय भिक्षुणो के साथ आचार्य अथवा प्रतिनी हों तो उसे यह ध्यान रखना पड़ता था कि अपने शरीर का कोई भी भाग उनके शरीर से स्पर्श न करे । परिवहन (नाव आदि) का उपयोग यात्रा करते समय नदी आदि को पार करने के लिए भिक्षुणी को अनेक नियमों का पालन करना पड़ता था। बिना कारण नाव में बैठना निषिद्ध था। इसी प्रकार वह अपने निमित्त खरीदी गयी, उधार ली गयी या बदले में ली गयी नाव पर नहीं बैठ सकती थी। उसे अपनी सभी उपयोगी वस्तुओं को एक साथ रखकर सावधानीपूर्वक नाव में बैठने का विधान था। नाव के सबसे आगे एवं पीछे वाले हिस्से में बैठना निषिद्ध था। नाव से पानी उलचना, किसी का सामान पकड़ना या देना, नाव को आगे या पीछे खींचने में सहायता करना आदि सारे कार्य उसके लिए निषिद्ध थे। लोगों के कथन के अनुसार काम न करने पर यदि कोई उसे पानी १. आचारांग, २/३/२/९-१०. २. वही, २/३/२/११-१२. ३. वही, २/३/३/३-६. ४. निशीथसूत्र, १८/१. ५. आचारांग, २/३/१/९. ६. वही, २/३/१/१०-१६; २/३/२/१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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