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________________ ५४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ संग, (३) अन्तरवासक' । संघाटी दो परतों की, उत्तरासंग एक परत को तथा अन्तरवासक एक परत का होता था। परन्तु यह नियम नये कपड़े पर लागू होता था और यदि वस्त्र पुराना होता था तो संघाटी चार स्तर की, उत्तरासंग तथा अन्तरवासक दो-दो स्तर के होते थे तथा कपड़ा यदि चीथड़ा (पंसुकूल) होता था तो उस पर आवश्यकतानुसार स्तर दिया जा सकता था। कालान्तर में आवश्यकतानुसार अन्य वस्त्रों को भी धारण करने की अनुमति दो गयी । भिक्षुणियों को कंचुक धारण करना अनिवार्य था । इसे संकच्छिका कहा गया है।३ जनापवाद के कारण संकच्छिका के ऊपर गण्डप्रतिच्छादन' नामक वस्त्र धारण करने का विधान बनाया गया। यह संकच्छिका के ऊपर पहना जाता था जो उसे कसे रहता था। ऋतुकाल को अवस्था में भिक्षुणियों को विशेष सावधानी बरतनी पड़ती थी। इस समय के लिए अलग से कुछ और वस्त्रों का विधान किया गया था। ऋतुकाल के समय उन्हें आवसत्थचोवर तथा अणिचोल" (रक्तशोधक) नामक वस्त्र को धारण करने की अनुमति दी गयी थी। इसके अतिरिक्त इनको सूत से कस कर बाँधने की सलाह दी गयी थी, परन्तु इन वस्त्रों का उपयोग केवल ऋतुकाल में ही किया जा सकता था, सर्वदा नहीं। शरीर के निचले हिस्से (गुप्तांग) को ढंकने के लिए कच्छी या लंगोट को धारण करने का विधान था। इसका परिमाप चार बालिस्त लम्बा तथा दो बालिस्त चौड़ा होता था। इससे बड़ा या छोटा पहनने पर पाचित्तिय दोष लगता था । दैनिक आवश्यकताओं के उपयोग हेतु भी कुछ अन्य वस्त्रों का विधान था जैसे पच्चत्थरण (बिछौने का चादर), कण्डुपटिच्छादन (खुजली, फोड़ा आदि रोग होने पर), मुखपुञ्छन (मुँह पोंछने वाला वस्त्र १. महावग्ग, पृ० ३०५. २. वही, पृ० ३०६. ३. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाचित्तिय, ९६; भिक्षुणी विनय, $ २६३. ४. वही, ६ २७७. ५. वही, ६२६८. ६. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाचित्तिय, १६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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