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________________ ५० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ नहीं है । यदि इनमें से कोई भी कारण दृष्टिगोचर होता था तो वह वस्त्र को तुरन्त वापस कर देती थी। भाष्यकार ने इतनी सूक्ष्म परीक्षा का कारण यह बताया है कि स्त्रियाँ शीघ्र ही प्रलोभन में आ जाती हैं तथा धैर्यहीन होती हैं, अतः भिक्षुणियों के ब्रह्मचर्य-स्खलन की पूरी सम्भावना रहती है । इसके अतिरिक्त साध्वी द्वारा इस प्रकार वस्त्र को लाते हुए देखकर नवदीक्षिता के मन में प्रलोभन की प्रवृत्ति उत्पन्न हो सकती है । इसका एक और कारण यह बताया गया है कि इस प्रकार की स्वतन्त्रता मिलने पर भिक्षणियों में वस्त्र लाने की प्रतिद्वन्द्विता प्रारम्भ हो जाती । भाष्यकार के अनुसार इसका सर्वोत्तम मार्ग यह है कि साध्वी किसी भी गृहस्थ से स्वयं वस्त्र न ले, अपितु उसके वस्त्र की आवश्यकता की पूर्ति आचार्य, उपाध्याय अथवा प्रवत्तिनी करें। ये स्वयं गृहस्थ के यहाँ से वस्त्र लावें और सम्यक परीक्षा के पश्चात् साध्वो को उपयोगार्थ दें।' ___ वस्त्र का रंग : प्राचीन आगम ग्रन्थों में वस्त्र के रंग के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु गच्छाचार आदि परवर्ती ग्रन्थों में भिक्षुभिक्षणियों को श्वेत वस्त्र ही धारण करने की अनुमति दी गई है। ___ साथ ही उसे यह निर्देश दिया गया था कि वह पुराने वस्त्र को नया तथा नये वस्त्र को पुराना न करे, इसी प्रकार सुगन्धयुक्त वस्त्र को दुर्गन्धयुक्त अथवा दुर्गन्धयुक्त वस्त्र को सुगन्धयुक्त न करे। उसे वस्त्र के सम्बन्ध में निरपेक्ष दष्टिकोण रखने की सलाह दी गई थी। ___ जैन भिक्षु-भिक्षुणियों को वस्त्र धोना निषिद्ध था। वस्त्र गन्दा हो जाने पर भी उसे साफ-सुथरा दीखने के लिए शीतल या गर्म जल से धोना मना था। नदी पार करते समय अथवा वर्षा में भीग जाने पर अथवा किसी अन्य कारणवश वस्त्र के भीग जाने पर यदि उसे सुखाने की आवश्यकता पड़े तो बहुत सावधानी बरतनो पड़ती थी। सावधानीपूर्वक जीवरहित भूमि का सूक्ष्म निरीक्षण कर भोगे वस्त्र को फैलाने का विधान था। उसे यह निर्देश दिया गया था कि ऊँचे खम्भे पर, दरवाजे पर, दीवाल १. बृहत्कलाभाष्य, भाग तृतीय, २८०४-३५. २. गच्छाचार, ११२. ३. आचारांग, २/५/१/१६-१८. ४. वही, २/५/१/१६-१८. ५. वही, २/५/१/९-२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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