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________________ आहार तथा वस्त्र सम्बन्धी नियम : ४९ निर्देश दिया गया था कि वह वस्त्र का भली-भाँति निरीक्षण कर ले कि वस्त्र में कहीं मूल्यवान धातु (सोना, चाँदी, रुपया) तो नहीं है । " भिक्षुणी को रात्रि में या सन्ध्याकाल में वस्त्र की गवेषणा करने का निषेध किया गया था, परन्तु यदि वह वस्त्र हृताहृतिका (हरियाहडियाए) हो तो उस वस्त्र को ले लेने का विधान था, भले ही वस्त्र को धोकर, रंगकर या मुलायम बनाकर रखा गया हो । हृताहृतिका वस्त्र उसको कहते हैं जिस वस्त्र को चोर आदि छोन या चुरा लिए हों और बाद में वे उस वस्तु को वृक्ष या झाड़ी पर डाल दें – ऐसे वस्त्र को ग्रहण करने में कोई निषेध नहीं था । भिक्षुणी गृहस्थों से वस्त्र प्राप्त करने में अत्यन्त सतर्कता का पालन करती थी । वह दाता के मनोभावों का सूक्ष्मता से अध्ययन कर ही वस्त्र ग्रहण करती थी । यदि कोई गृहस्थ वस्त्र देने की इच्छा प्रकट करे, तो भिक्षुणी को यह निर्देश दिया गया था कि वह सागारकृत करके ही वस्त्र ले (सागारकडं गहाय ) तथा प्रवत्तिनी की अनुमति मिलने पर ही उसे अपने उपयोग में लावे अर्थात् यदि गृहस्वामी वस्त्र पात्र दे तो साध्वी को यह कहकर लेना चाहिए कि आचार्य इसे रखेंगे अथवा मुझे या अन्य साध्वी को देंगे तो रखा जायेगा अन्यथा ये वस्त्र - पात्र आदि लौटा दिये जायेंगे । इस प्रकार से कहकर गृहस्वामी से वस्त्र - पात्र आदि ग्रहण करने को “सागारकृत" कहते हैं । इस सन्दर्भ में वह दाता से तीन प्रश्न पूछती थी - ( १ ) यह वस्त्र किसका है ? और (२) कैसा है ? दोनों का सन्तोषजनक उत्तर मिलने पर वह अन्तिम प्रश्न करती थी (३) कि यह मुझे क्यों दिया जा रहा है ? इन तीनों प्रश्नों का सम्यक् उत्तर पाकर ही वह वस्त्र को लेती थी- अन्यथा नहीं । साध्वी के द्वारा लाये गये वस्त्र को प्रवर्तिनी एक सप्ताह तक अपने पास रखती थी तथा उसका भली प्रकार निरीक्षण करती थी कि वस्त्र किन्हीं दोषों से युक्त तो नहीं है । वस्त्र के असंदिग्ध होने पर वह लाने वाली साध्वी को अथवा उसकी आवश्यकता न रहने पर दूसरी साध्वी को देती थी । प्रवत्तिनी इसका भी ध्यान रखती थी कि वस्त्रदाता युवा, विधुर अथवा दुराचारी व्यक्ति तो नहीं है और साध्वी (जिसे दिया गया है) युवती और नवदीक्षता तो १. आधारांग, २/५/१/१२. २. बृहत्कल्पसूत्र, १/४५. ३. वही, १/४२-४३. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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