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४८ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
३. वेकच्छिय' : यह वस्त्र उक्त दोनों को ढंकता था।
४. संघाडी : संघाडी संख्या में चार होती थी। उनमें से एक दो हाथ की होती थी। दो, तीन-तीन हाथ की होती थी तथा इसको भिक्षायाचना तथा आराम करने के समय पहना जाता था (भिक्खट्ठा एग एग उच्चारे)। चौथा वस्त्र चार हाथ का होता था और सामान्य रूप से इसे प्रवचन-सभाओं में पहना जाता था (णिसन्नपच्छायणी मसिणा)
५. खंधकरणी : यह भी लम्बाई में चार हाथ का होता था (चउहत्थवित्थडा)। वैसे तो इसका प्रमुख रूप से उपयोग तेज हवा से बचने के लिए होता था (वायविहयरक्खट्टा), परन्तु इसका एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य सुन्दर भिक्षुणियों को नाटीपन दीखाने के लिए होता था (खुज्जकरणी उ कीरइ रूववईणं कुडहहेउ)। रूपवती साध्वी को देखकर दुष्ट पुरुषों के मन में दूषित भावनाएँ जन्म ले सकती हैं, अतः कुरूप प्रदर्शित करने के लिए भिक्षुणी के पीठ पर वस्त्रों की एक पोटली सी बाँध देते थे जिससे वह कुबड़ी सी दीखने लगे। वस्त्र-गवेषणा सम्बन्धी नियम।
संघ के नियमानुसार साध्वी वस्त्र की अपेक्षा में आधे योजन तक जा सकती थी, उसके आगे नहीं।' भिक्षुणियों के लिए प्रथम समवसरणकाल (अर्थात् आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक) में वस्त्र-ग्रहण करना वर्जित था। वे द्वितीय समवसरणकाल (अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा से आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा तक) में ही वस्त्र (या अन्य उपकरण) ग्रहण कर सकती थीं।५ स्पष्ट है कि भिक्ष-भिक्षणियों को वर्षाकाल में वस्त्र-ग्रहण करना निषिद्ध था।
याचना के समय तुरन्त प्राप्त वस्त्र ही ग्रहणीय था। याचना करने पर दाता यदि किसी निश्चित दिन अथवा समय पर वस्त्र देने को कहे तो इस प्रकार का वस्त्र ग्रहण करना भिक्षुणी के लिए निषिद्ध था । दाता यदि वस्त्र को सुगन्धित कर या ठंडे अथवा गरम जल से धोकर दे तो ऐसा वस्त्र भी वह नहीं ले सकती थी । वस्त्र लेने के पहले साध्वी को यह १. ओघनियुक्ति, ३१८. २. वही, ३१९. ३. वही, ३२०. ४. आचारांग, २/५/१/२. ५. बृहत्कल्प सूत्र, ३/१६. ६. आचारांग, २५/१/८.
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