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४६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ बृहत्कल्प भाष्यकार ने भिक्षुणियों के लिए सर्वथा निषेध का कारण बताते हुये कहा है कि चमड़े पर बैठने से भिक्षुणियों के मन में गृहस्थ-जीवन में उपयोग की गयी कोमल शय्या की याद आ जायेगी-फलस्वरूप उनमें आचारिक शिथिलता का होना सम्भव है।' ___वस्त्र-ग्रहण करने के सम्बन्ध में भिक्षुणी को कुछ अन्य मर्यादाओं का पालन करना पड़ता था। जैसे, भिक्षुणी के लिए वस्त्र यदि जीवों आदि की हिंसा करके बनाया गया हो, खरीदा गया हो, धोया गया हो, रंगा गया हो, साफ किया गया हो अथवा सुगन्धित किया गया हो तो ऐसा वस्त्र उसके लिए अग्रहणीय था। इसी प्रकार उसे अधिक मूल्य वाले अथवा कपास आदि के महीन वस्त्रों को भी लेने का निषेध किया गया था। इसी प्रकार किसी जीव-जन्तुओं से युक्त वस्त्र को भिक्षुणी लेने से अस्वीकार कर सकती थी। इसके अतिरिक्त वस्त्र यदि लम्बाई. चौड़ाई में पर्याप्त न हो, बहुत पुराना हो चुका हो, पहनने योग्य न हो या दाता अरुचि से देता हो तो ऐसे वस्त्र को ग्रहण करना उसके लिए सर्वथा वजित था।
वस्त्रों की संख्या : सामान्य रूप से जैन भिक्षुणियों को चार वस्त्र (चत्तारि संघाडीओ) रखने का विधान था।" इनमें से एक दो हाथ की, दो तीन हाथ की और एक चार हाथ के विस्तार की होना चाहिए। उसे यह निर्देश दिया गया था कि जब वह भिक्षा-वृत्ति के लिए या स्वाध्याय के लिए जाय अथवा सामान्य रूप से एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाय तो वह सभी वस्त्रों को साथ लेकर जाय ।
बृहत्कल्पसूत्र में भिक्षुणी के गुप्तांग को ढंकने के लिए दो वस्त्रों का विधान किया गया है।
(१) उग्गहणन्तगं (२) उग्गहपट्टगं
१. बृहत्कल्प भाष्य, चतुर्थ भाग, ३८१०-१९. २. आचारांग, २/५/१/३-४. ३. वही, २/५/१/१३. ४. वही, २/५/१/१४. ५. वही, २/५/१/१. ६. वही, २/५/२/२. ७. बृहत्कल्प सूत्र, ३/१२.
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