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४४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
था । भोजन के स्वाद रहित होने पर उसकी निन्दा करना अपराध माना जाता था क्योंकि भोजन का मूल उद्देश्य स्वाद प्राप्त करना नहीं अपितु केवल जीवन निर्वाह करना था ।
दोनों संघों में भोजन की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता था । विशेष रूप से जैन संघ में इन नियमों का कठोरता से पालन किया जाता था । यहाँ भोजन की शुद्धता परखने के ४२ नियम थे । शुद्धता की जितनी परख जैन संघ में की जाती थी, उतनी बौद्ध संघ में निश्चय ही नहीं थी । उदाहरणस्वरूप - जैन ग्रन्थों के अनुसार उद्देश्यपूर्वक बनाया हुआ भोजन लेना भिक्षु भिक्षुणियों के लिए निषिद्ध था— जबकि बौद्ध भिक्षु भिक्षुणियों के लिए ऐसा कोई निषेध नहीं था । धनी उपासकों तथा राजाओं द्वारा भोजन का निमन्त्रण देने पर स्वयं बुद्ध तथा उनके भिक्षुभिक्षुणियों के जाने के बहुशः उल्लेख हैं ।
दोनों ही संघों में रात्रि भोजन अग्रहणीय था । रात्रि भोजन के निषेध का सबसे प्रमुख कारण अहिंसापरक दृष्टिकोण था । रात्रि में सूक्ष्मजीवों को देख पाना सम्भव नहीं था अतः रात्रि भोजन करने से हिंसा की सम्भावना थी । इसी कारण मध्याह्न के पहले ही उन्हें भोजन कर लेने का निर्देश दिया गया था ।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि आहार के सम्बन्ध में दोनों संघों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं था । जो अन्तर था वह दोनों के दृष्टिकोण को लेकर ही था । जैन संघ अति कठोरता में विश्वास करता था जबकि बौद्ध संघ मध्यम मार्गी था और वह कुछ परिस्थितियों में अपने सदस्यों को छूट देता था ।
वस्त्र सम्बन्धी नियम
जैन भिक्षुणी के वस्त्र सम्बन्धी नियम : प्राचीन जैन ग्रन्थों में भिक्षु के वस्त्र-रहित (निर्वस्त्र) रहने की प्रशंसा की गयी है । उत्तराध्ययन' से स्पष्ट है कि महावीर ने निर्वस्त्र रहने का उपदेश दिया था तथा अपने जीवन में इसका पूर्णतया पालन किया था । अचेलकत्व के सन्दर्भ में जैन धर्म का दृष्टिकोण अत्यन्त कठोर रहा है । दिनम्बर परम्परा के अनुसार तो बिना अचेल (नग्न) हुए मोक्ष प्राप्ति सम्भव ही नहीं है । परन्तु इस कठोर दृष्टिकोण के बावजूद श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में निर्वस्त्रता का पूर्णतया पालन सम्भव न हो सका । अचेलकत्व का १. उत्तराध्ययन, २३/१३.
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