SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना : २९ (३) औषधि के रूप में उसे गोमूत्र का सेवन करना पड़ेगा।' तीन निश्रयों को बतलाने के उपरान्त भिक्षुणी को आठ अकरणीय धर्मों का ज्ञान कराया जाता था। ये अकरणीय धर्म पाराजिक दण्ड के ही नियम थे । इन अकरणीय धर्मों से उन्हें सर्वदा विरत रहने की शिक्षा दी जाती थी । भिक्षुणियों के अकरणीय (पाराजिक) निम्न थे: १. मैथुन करना २. चोरी की वस्तु ग्रहण करना ३. जान-बूझकर हत्या करना । ४. दिव्य शक्ति का प्रदर्शन करना ५. कामासक्त होकर किसी पुरुष का स्पर्श करना ६. पाराजिक अपराधिनी भिक्षुणी को जानते हुए भी संघ को न सूचित करना ७. संघ से निष्कासित भिक्षु का अनुगमन करना ८. कामासक्त होकर किसी कामुक पुरुष के साथ एकान्त स्थान में . जाना बौद्ध संघ में भिक्षुणियाँ दूत भेजकर भी उपसम्पदा प्राप्त कर सकती थीं। परन्तु यह सामान्य नियम नहीं था और केवल उसी स्थिति में किया जाता था जब भिक्षु-संघ कहीं दूर रहता था तथा भिक्षणी के स्वयं वहाँ उपस्थित होने पर उसके शील-सुरक्षा का भय रहता था । यहाँ भी उपसम्पदा के सारे नियमों का पालन किया जाता था। यह इसलिए सम्भव हो पाता था कि उपसम्पदा सम्बन्धी सारी औपचारिकता भिक्षुणी-संघ में पहले ही पूरी हो जाती थी। काशी की गणिका अड्ढकाशी ने दूत भेजकर उपसम्पदा प्राप्त की थी, क्योंकि भिक्षु-संघ तक पहुँचने में उसे अपने शील की सुरक्षा के सम्बन्ध में खतरा प्रतीत हो रहा था । भिक्षुणी-संघ की कोई चतुर सदस्या ही दुती का काम कर सकती श्री । भिक्षु-संघ से वह बताती थी कि उपसम्पदा की इच्छुक शिक्षमाणा सभी दोषों से रहित है, उससे अन्तरायिक धर्मों के विषय में पूछा जा चुका है तथा उपसम्पदा के लिए भिक्षुणो-संघ की अनुमति मिल चुकी है। अब उसे भिक्षु-संघ की अनुमति अपेक्षित है। भिक्षु-संघ की १. चुल्लवग्ग, पृ० ३९५. २. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाराजिक, १-८. ३, चुल्लवग्ग, पृ० ३९७-९९; भिक्षुणी विनय, 5७०-८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy