________________
३० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
अनुमति प्राप्त होने पर उसे भिक्षुणी संघ में उपसम्पन्न कर लिया
जाता था ।
द्रष्टव्य है कि भिक्षुओं को दूत भेजकर उपसम्पदा प्राप्त करने का विधान नहीं था क्योंकि उन्हें उपसम्पन्न होने के लिए केवल भिक्षु संघ की ही अनुमति आवश्यक थी। इसके विपरीत, भिक्षुणियों को दोनों संघों से अनुमति प्राप्त करनी आवश्यक थी। बिना भिक्षु संघ की अनुमति के उनकी उपसम्पदा नहीं हो सकती थी ।
तुलना : दोनों धर्मों में भिक्षुणी संघ में नारियों के प्रवेश सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए हम देखते हैं कि प्रवेश सम्बन्धी नियमों में दोनों धर्मों में बहुत कुछ समानताएँ थीं, किन्तु कुछ अन्तर भी थे । दोनों संघों में प्रवेश के लिए नारी को अपने संरक्षक से अनुमति लेनी अनिवार्य थी । संरक्षक -- माता-पिता, भाई, पति अथवा पुत्र कोई भी हो सकता था। संघ में बिना संरक्षक की अनुमति के प्रवेश करने पर संघ तथा भिक्षुणी के संरक्षक के मध्य कटुता बढ़ती थी । अतः संरक्षक की अनुमति को आवश्यक मानकर ऐसे विवादों से बचने का प्रयास किया
गया था ।
दोनों संघों में भिक्षुणी बनने के पूर्व उसे नियमों को सीखने का विधान किया गया था । जैन भिक्षुणी क्षुल्लिका के रूप में कुछ समय तक किसी योग्य भिक्षुणी की देख-रेख में रहती थी तथा नियम को सीखने के उपरात वह भिक्षुणी कहलाती थी । इसी प्रकार बौद्ध भिक्षुणी संघ में नारी श्रामणेरी के रूप में १० शिक्षापदों तथा शिक्षमाणा के रूप में कम से कम दो वर्ष तक षड्नियमों की जानकारी प्राप्त करती थी । तदुपरान्त उसकी उपसम्पदा होती थी ।
संघ में प्रवेश सम्बन्धी नियमों में दोनों संघों में कुछ मूलभूत अन्तर भी दृष्टिगोचर होते हैं । जैन भिक्षुणी संघ में केश-लुञ्चन की प्रथा अनिवार्य थी जबकि बौद्ध भिक्षुणी संघ में इस प्रकार का कोई नियम नहीं था । बौद्ध भिक्षुणियाँ केवल सिर के बाल कटवा लेती थीं ।
जैन भिक्षुणी संघ में प्रथम दीक्षा के समय नारी के पूर्व जीवन (गृहस्थजीवन), रोग, व्याधि की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली जाती थी जबकि बौद्ध भिक्षुणी संघ में ये सारी जानकारियाँ उपसम्पदा के समय प्राप्त की जाती थीं। इसके अतिरिक्त बौद्ध भिक्षुणी संघ में दृती भेजकर भी उपसम्पदा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org