SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना : २७ उस शिक्षमाणा के बारे में बतातो थी कि यह इस विशेष नाम वाली आर्या की उपसम्पदा चाहने वाली शिक्षमाणा है तथा विघ्नकारक (अन्तरायिक) प्रश्नों के पूछने के लिए संघ की अनुमति चाहती है। फिर संघ की अनुमति से उससे अन्तरायिक धर्मों (प्रश्नों) के विषय में पूछा जाता था। यदि वह प्रश्नों की कसौटी पर खरी उतरती थी तो संघ को उसकी शुद्धता के बारे में सूचना दी जाती थी। इसके उपरान्त संघ से यह अनुरोध किया जाता था कि संघ यदि उचित समझे तो इस नाम वाली शिक्षमाणा को इस विशेष नाम वाली आर्या के उपाध्यायत्व में उपसम्पदा की आज्ञा प्रदान करे । यह ज्ञप्ति (ति) होती थी। इसके बाद तीन बार अनुश्रावण होता था अर्थात् उसी बात को संघ के समक्ष तीन बार दुहराया जाता था। फिर धारणा के समय यदि संघ मौन धारण किये रहता था (अर्थात् शिक्षमाणा के बारे में संघ को कोई शिकायत नहीं होती थी) तो यह समझा जाता था कि संघ को इसका (शिक्षमाणा का) उपसम्पन्न होना स्वीकार है। इसके तुरन्त बाद वह शिक्षमाणा भिक्षु-संघ में लायी जाती थी तथा भिक्षणी-संघ में सम्पन्न हुई सारी कार्यवाहियां पुनः दुहरायी जाती थीं। यदि धारणा के समय भिक्ष-संघ मौन धारण किये रहता था तो वह शिक्षमाणा तुरन्त बौद्धसंघ में उपसम्पन्न कर ली जाती थी अर्थात् अब वह पूरे अर्थों में भिक्षुणी कहलाने की अधिकारिणी हो जाती थी।' भिक्षुणियों की उपसम्पदा अट्ठवाचिक उपसम्पदा कही जाती थी क्योंकि इनके सन्दर्भ में "अति चतुत्थकम्म" का पालन दो बार (पहले भिक्षुणी-संघ में तत्पश्चात् भिक्षु-संघ में) होता था। एक ज्ञप्ति (अति) तथा तीन अनुश्रावण को अतिचतुत्थकम्म कहा जाता था। . उपसम्पदा प्रदान करने वाली प्रतिनी (उपाध्याया अथवा उपाध्या. यिनी) की योग्यता का भी ध्यान रखा जाता था। भिक्षुणो-संघ की कोई योग्य उपाध्याया ही किसी शिक्षमाणा को उपसम्पदा प्रदान कर सकती थी। कम से कम १२ वर्ष तक भिक्षुणी का जीवन व्यतीत की हुई प्रवतिनी ही उपसम्पदा प्रदान करने की अधिकारिणी थी। वह बिना संघ की सम्मति के किसी शिक्षमाणा को उपसम्पदा प्रदान नहीं कर सकती थी। उसे अपनो शिक्षमाणा को पूरे दो वर्ष तक षड्धर्मों का १. चुल्लवग्ग, पृ० ३९३-९५; भिक्षुणी विनय, ६२८-६६. २. समन्तपासादिका, भाग तृतीय, पृ० १५१४. ३. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाचित्तिय, ७४ और ७५. ४. द्रष्टव्य-इसी प्रन्थ का षष्ठ अध्याय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy