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जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी संघ की स्थापना : २५ दीक्षा-विधि
जैन भिक्षुणी-संघ में दीक्षा-विधि - संघ में प्रवेश सम्बन्धी अयोग्य - ताओं से रहित तथा संरक्षक से अनुमति प्राप्त नारी ही जैन भिक्षुणी संघ में प्रवेश कर सकती थी । स्त्रियों के दीक्षा धारण करने के समय का विस्तृत विवरण जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । संरक्षक से अनुमति प्राप्त कर लेने पर दीक्षा के दिन दीक्षा महोत्सव का आयोजन किया जाता था । उस समय प्रवेशाथिनी नारी विविध प्रकार का दान देती थी जिसमें उसके द्वारा धारण किए हुए आभूषण तथा वस्त्र मुख्य होते थे । तदनन्तर वह कलशों में रखे जल से स्नान करती थी । तदुपरान्त वह साध्वी का वस्त्र धारण कर पञ्चमुष्टि केश लुञ्चन करती थी । इसके उपरान्त प्रवर्तिनी के द्वारा उसे दीक्षा प्रदान की जाती थी । अन्तकृतदशांग' में दीक्षा ग्रहण करती हुई कुछ भिक्षुणियों के सम्बन्ध में इसी तरह का वर्णन प्राप्त होता है । अन्य भिक्षुणियों के सम्बन्ध में भी इसी तरह की प्रथा का पालन किया जाता रहा होगा - यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है ।
जैन ग्रन्थों में इन दीक्षा महोत्सवों का आयोजन केवल धनी नारियों के सन्दर्भ में किया गया है । निर्धन नारियाँ किस प्रकार दीक्षा ग्रहण करती थीं, ग्रन्थों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । यह अनुमान करना अनुचित नहीं होगा कि उनका दीक्षा महोत्सव अत्यन्त साधारण रहता होगा, क्योंकि उस प्रकार का दान ( जैसा वर्णन है ) वे कथमपि नहीं कर सकती थीं । सम्भवतः ऐसी नारियाँ केवल अपनी योग्यता के बल पर ही संघ में प्रवेश करती थीं। यह भी सम्भव है कि निर्धन नारियों का दीक्षा महोत्सव समाज के श्रद्धालु श्रावक करते रहे होंगे । अन्तकृत दशांग में कृष्ण द्वारा अनेक स्त्री-पुरुषों के दीक्षा महोत्सव करने का उल्लेख प्राप्त है । आधुनिक काल में भी जेन भिक्षुणियों के दीक्षा के समय यह परम्परा देखी जाती है ।
जैन भिक्षुणियों द्वारा केशलुञ्चन का उल्लेख अभिलेखों से भी प्राप्त होता है । शकसम्बत् ८९३ में उत्कीर्ण कर्नाटक के एक अभिलेख में
१. अन्तकृतदशांग - पञ्चम तथा सप्तम वर्ग ।
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