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१८ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ का परित्याग नहीं किया और दूती भेजकर भिक्षु-संघ से उपसम्पदा की अनुमति प्राप्त की थी।
दासी-पुत्रियों के भी संघ में प्रवेश करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। पूर्णिका श्रावस्ती के सेठ अनाथपिण्डक के घर की दासी की पुत्री थी। पूर्णिका की बौद्ध धर्म में श्रद्धा देखकर सेठ ने उसे दासत्व के भार से मुक्त कर दिया। उन्हीं सेठ की अनुमति लेकर वह भिक्षुणी-संघ में प्रविष्ट हुई। इसके अतिरिक्त कुछ नितान्त व्यक्तिगत कारण भी होते थे जिससे स्त्रियाँ भिक्षुणी-संघ में प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं। सोखा ने अपने पुत्र एवं बहुओं के निरादर के कारण गृह-त्याग कर बौद्ध संघ में शरण ली थी। ऋषिदासी को अपने पति के घर से निकाल दिया गया था, जिससे विवश होकर उसने बौद्ध भिक्षणी-संघ में प्रवेश लिया था। मुक्ता" ने कुबड़े पति के कारण गह-त्याग किया था क्योंकि पति की शारीरिक रचना उसके मन के अनुकूल नहीं थी।
तुलना-इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों भिक्षुणी-संघों में स्त्रियों के प्रवेश करने के लगभग समान कारण थे। पति, पुत्र, पुत्री, भाई अथवा स्नेही-जनों की मृत्यु के कारण उनमें संसार के प्रति वैराग्य को । भावना उत्पन्न हो जाती थी। पति की मत्यु अथवा उसके प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने के उपरान्त संघ में प्रवेश के जो अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं उनसे यह निश्चित रूप से आभास होता है कि उस समय पति-विहीन नारियों को समाज में अपेक्षित स्थान प्राप्त नहीं था। विवाह-संस्था एवं एकपत्नीनिष्ठा, जो सामाजिक जीवन में व्यवस्था को बनाये रखने का एक मुख्य आधार थी, वह पुरुषवर्ग की भोगलिप्सा के कारण अत्यन्त जर्जरित हो गई थी। इसके फलस्वरूप स्त्रियों का वैवाहिक जीवन अभिशप्त हो जाता था । इन सभी स्त्रियों के लिए संघ एक आश्रयस्थल सिद्ध होता था जहाँ जाकर वे सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकती थीं और साथ ही आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त कर सकती थीं। कुछ स्त्रियाँ,
१. चुल्लवग्ग, पृ० ३९७-९९. २. थेरी गाथा, परमत्थदीपनी टीका, ६५, ३. वही, ४५. ४. वही, ७७. ५. वही, ११.
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