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जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना : १९ निस्सन्देह, ज्ञानप्राप्ति तथा आध्यात्मिक भावना से प्रेरित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं। वे बचपन से ही धार्मिक तथा श्रद्धालु होती थीं। वे आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर पूर्ण पवित्रता का जीवन व्यतीत करती थीं। जैन भिक्षुणी-संघ में ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना, सुव्रता तथा बौद्ध भिक्षुणीसंघ में सुमेधा, अनुपमा, गुप्ता आदि इसी प्रकार की भिक्षुणियाँ थीं जिनका पूरा जीवन विद्या के प्रति समर्पित था। भिक्षुणी-संघ में प्रवेश सम्बन्धी अयोग्यताएँ - जैन और बौद्ध दोनों संघों में जाति, वर्ण, धर्म, रंग, रूप, लिंग का ख्याल किये बिना प्रत्येक स्त्री-पुरुष को प्रवेश की अनुमति थी तथापि संघ के संघटन को सुचारू रूप से चलाने के लिए एवं संघ की प्रतिष्ठा की सुरक्षा के लिए प्रवेश सम्बन्धी कुछ नियमों का निर्माण किया गया था जिनके आधार पर अवांछित तत्वों को संघ-प्रवेश से रोका जा सके । ... जैन भिक्षुणी-संघ में प्रवेश सम्बन्धी अयोग्यता : स्थानांग एवं उसकी टीका' में कुछ ऐसी अयोग्यताओं का उल्लेख है, जिनके आधार पर किसी स्त्री या पुरुष को संघ में प्रवेश देने से वञ्चित किया जा सकता था। . (क) बाले (बालक, जो आठ वर्ष से कम हो)
(ख) बुड्ढे (वृद्ध) (ग) नपुंस (नपुसक) (घ) जड्डे (अति मूर्ख) (ङ) कीवे (क्लीव)" (च) वाहिए (रोगी व्यक्ति) (छ) तेणे (चोर या डाकू) (ज) रायावगारी (राजा का अपकार करने वाला) (झ) उम्मत्ते (उन्मत्त) (ञ) अदंसणे (अन्धा) (ट) दास (ठ) दुट्ठ (दुष्ट) (ड) मूढ (मूर्ख) (ढ) अणत्त (ऋणी)
(ण) जुंगिय (अंगहीन) १. स्थानांग, ३/२०२, टीका पृ. १५४-५५,
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