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________________ जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना : १? इन अष्टगुरुधर्मों को प्रजापति ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह समाचार जब आनन्द से बुद्ध को मिला, तब भी उन्होंने कहने में संकोच नहीं किया कि “आनन्द ! यदि तथागत-प्रवेदित धर्म-नियम में स्त्रियाँ प्रवज्या न पातीं तो यह धर्म चिरस्थायी होता, यह सहस्र वर्ष ठहरता । परन्तु आनन्द ! स्त्रियों ने प्रव्रज्या ग्रहण की, अतः ब्रह्मचर्य चिरस्थायी न रहेगा और यह सद्धर्म ५०० वर्ष ही ठहरेगा।" भिक्षुणी-संघ के लिए इन अष्टगुरुधर्मों की आवश्यकता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने चार लौकिक उदाहरण दिये :(१) जैसे वह परिवार चोरों द्वारा आसानी से नष्ट कर दिया जाता है, जिसमें स्त्रियाँ अधिक हों तथा पुरुष कम । (२) जैसे पके हुए धान के खेत में सफेदा (सेतट्टिका) रोग लग जाने से वह खेत नष्ट हो जाता है । (३) जैसे तैयार ईख के खेत में मञ्जिटिका (एक प्रकार का लाल रोग) रोग लग जाने से वह नाश को प्राप्त हो जाता है। (४) जैसे मनुष्य पानी के रोकथाम के लिए मेंड़ (आली) बाँधता है, उसी प्रकार मैंने (बुद्ध ने) अतिचारों की रोकथाम के लिए भिक्षुणियों के यावज्जीवन अतिक्रमण न करने योग्य अष्टगुरुधर्मों को प्रतिष्ठापित किया है। बुद्ध के द्वारा दिये गये ये चारों उदाहरण प्रतीकात्मक थे। बौद्ध संघ में स्त्रियों के प्रवेश से भिक्षुओं के ब्रह्मचर्य के स्खलित होने का भय था । धान के खेत में सेतट्रिका तथा ईख के खेत में मञ्जिट्रिका रोग संन्यास-जीवन में दोषों के ही प्रतीक थे। ____ उपर्युक्त उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध संघ में स्त्रियों के प्रवेश से उत्पन्न होनेवाली कठिनाइयों के प्रति चिन्तित थे। इसीलिए उन्होंने भिक्षुणियों के लिए अष्टगुरुधर्म की मर्यादा बतायी थी। यह यावज्जीवन पालनीय धर्म था, जिसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता था। कुछ भी हो, बौद्ध धर्म के संघ में स्त्रियों को प्रवेश का अधिकार दिलाकर आनन्द ने अत्यन्त श्लाघनीय कार्य किया। अपने इस क्रान्तिकारी कार्य के कारण आनन्द हमेशा याद रखे गये। राजगृह को प्रथम १. चुल्लवग, पृ० ३७६-७७.; भिक्षुणी विनय, ६ १२. २. चुल्लवग्ग, पृ० ३७७; भिक्षुणी विनय, ६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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