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६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणो-संघ तथा महाभारत की सुलभा के दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि नारियाँ संन्यासमार्ग का अनुसरण करती थीं। इन नारियों ने या तो पति के संन्यास ग्रहण कर लेने पर या पति की मृत्यु के उपरान्त या योग्य पति न पा सकने के कारण संन्यास-मार्ग का अवलम्बन ग्रहण किया था। हम अगले पष्ठों में देखेंगे कि जैन एवं बौद्ध धर्म के भिक्षणी-संघ में नारियों के प्रवेश के कारणों में वैराग्य-भाव के साथ ही साथ ये भी मख्य कारण थे। स्त्रियाँ स्वभावतः ही भावुक होती हैं, इन परिस्थितियों में वे अधिक भावप्रवण हो जाती हैं और अन्ततोगत्वा वैराग्य का पथ चुन लेती हैं।
उपर्युक्त सन्दर्भो के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना असङ्गत नहीं होगा कि महावीर एवं बुद्ध के पूर्व स्त्रियाँ संन्यास-मार्ग का अनुसरण करती थीं। इन ग्रन्थों में प्रायः संन्यासिनियों के अकेले ही रहने या विचरण करने का उल्लेख मिलता है। उपयुक्त ग्रन्थों में उनके किसी संघ के अस्तित्व की सूचना नहीं मिलती, परन्तु इन संन्यासिनियों के लिए कुछ व्रतों अथवा नियमों का विधान किया गया था, जैसा कि रामायण में शबरी को “संशितव्रताम्" कहा गया है। इन नियमों का क्रमशः विकास होता रहा । यह निश्चित सा प्रतीत होता है कि इन्हीं व्रतों (नियमों) के आधार पर छठी शताब्दी ईसा पूर्व में महावीर एवं बुद्ध-दोनों ने अपने भिक्षुणी-संघों के लिए नियमों का प्रतिपादन किया। जैन-धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना- जैन-धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना का प्रश्न विचारणीय है। ऐतिहासिक दृष्टि से परवर्ती जैन आगम ग्रन्थ समवायांग में निम्न २४ तीर्थंकरों का नामोल्लेख है'-ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाव, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुथु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान । परवर्ती ग्रन्थ कल्पसूत्र में २४ तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकरों ऋषभ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर का जीवन-चरित्र थोडे विस्तार के साथ वर्णित है तथा इनकी भिक्षुणियों की संख्या का भी उल्लेख है और शेष (२ से २१ तक ) २० तीर्थंकरों का मात्र उल्लेख है।
चाहे पार्श्व एवं महावीर के अतिरिक्त शेष २२ तीर्थंकरों की ऐति
१. समवायांग, १५७.
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